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Chapter 3
त्रिपक्षीय संघर्ष : पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट
आठवीं शताब्दी से पहले की भारत की राजनीतिक स्थिति के बारे में हम पिछले अध्यायों में पढ़ चुके हैं। इस अध्याय में हम जानेंगे की हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई। विशाल साम्राज्य के स्थान पर छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। इन छोटे-छोटे राज्य की क्षेत्रीयता तथा विकेन्द्रीकरण की भावना देश के लिए घातक सिद्ध हुई। परन्तु इसके परिणामस्वरूप इस युग में कई प्रबल राजनीतिक शक्तियां उभर कर आई इन शक्तियों ने उत्तरी भारत में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रयास में तीन शक्तियां प्रमुख थी पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट।
त्रिपक्षीय संघर्ष
उत्तरी भारत विशेषतः कन्नौज पर अधिकार करने के लिए पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट नामक तीन शक्तियों में आपस में लगभग दो शताब्दियों तक जो संघर्ष चला उसे त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है। इस संघर्ष में कभी एक विजयी रहा, तो कभी दूसरा। यह संघर्ष अंततः तीनों साम्राज्यों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। इतिहास में ये तीनों साम्राज्य अपने उत्तम प्रशासन, धार्मिक सहनशीलता की नीति, कला एवं साहित्य को प्रोत्साहन देने के लिए प्रसिद्ध थे। निःसन्देह इन तीनों साम्राज्यों ने विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन तीनों साम्राज्यों के बारे में इस अध्याय में हम विस्तार से चर्चा करेगें।
कन्नौज के लिए संघर्ष क्यों?
- हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपने साम्राज्य की राजधानी बना कर उसे एक गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया था।
- यह उत्तरी भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक केंद्र था।
- यह प्रदेश बहुत उपजाऊ तथा व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसलिए कन्नौज को प्राप्त करने वाला यहां से अपार धन प्राप्त कर सकता था।
- उस समय के राजाओं का यह विचार था कि कोई राजा कन्नौज पर अधिकार करके ही उत्तर भारत के विशाल उपजाऊ क्षेत्र पर अपनी सर्वोच्चता का दावा कर सकता था।
- इस कारण कन्नौज राजनीतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक पक्षों से बहुत महत्वपूर्ण प्रदेश था।
कन्नौज के लिए त्रिकोणीय संघर्ष पाल वंश के राजा धर्मपाल के समय 780 ई. में आरंभ हुआ। धर्मपाल, पाल वंश का एक शक्तिशाली शासक था। वह कन्नौज पर अधिकार करके अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। किंतु प्रतिहार राजवंश का राजा वत्सराज इस बात को सहन नहीं कर सकता था। उसने गंगा-यमुना दोआब के मध्य हुई एक लड़ाई में धर्मपाल को पराजित कर दिया। परंतु इसी समय राष्ट्रकूट के महान राजा ध्रुव ने कन्नौज को अपने अधिकार में लेने के लक्ष्य से वत्सराज पर आक्रमण करके उसे भगा दिया, फिर उसने धर्मपाल को भी लड़ाई में पराजित कर दिया। इस प्रकार साम्राज्य के लिए पाल, गुर्जर-प्रतिहार व राष्ट्रकूटों में त्रिकोणीय संघर्ष आरंभ हुआ।
राष्ट्रकूट राजा ध्रुव कन्नौज में अभी अपनी स्थिति को दृढ़ नहीं कर पाया था कि उसे अपने साम्राज्य में राज सिंहासन के लिए पैदा हुई कठिनाइयों के कारण वापस लौटना पड़ा। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर धर्मपाल फिर अपने सैनिकों को साथ लेकर कन्नौज की ओर बढ़ा। उसके सैनिकों ने इंद्रयुद्ध को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। धर्मपाल ने अब अपने आधिपत्य में कन्नौज पर चक्रयुद्ध को बिठाया।
वत्सराज की मृत्यु के पश्चात् नागभट्ट द्वितीय प्रतिहार राजघराने का नया शासक बना। उसने चक्रयुद्ध को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस कारण धर्मपाल को नागभट्ट द्वितीय के साथ युद्ध करना पड़ा। मुंगेर (बिहार) में हुए इस युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई।
धर्मपाल के आह्वान पर राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय, जो ध्रुव का उत्तराधिकारी था कन्नौज की ओर बढ़ा। उसने नागभट्ट को एक युद्ध में पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया किंतु शीघ्र ही नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर पुनः अधिकार कर लिया।
नागभट्ट द्वितीय के दुर्बल उत्तराधिकारी रामभद्र के समय में पाल वंश के शासक देवपाल ने कन्नौज को अपने अधिकार में ले लिया था। रामभद्र के पश्चात् मिहिरभोज प्रतिहार वंश का नया शासक बना। वह प्रतिहार वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने देवपाल से कन्नौज को जीत कर उसे अपनी राजधानी बनाया। तत्पश्चात् कन्नौज अधिकतर प्रतिहार शासकों की राजधानी रहा किंतु उस पर पाल व राष्ट्रकूट शासकों का प्रभाव भी बना रहा।
- राष्ट्रकूट
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- ध्रुव 780-793 ई.
- गोविंद तृतीय 793-814 ई.
- अमोघवर्ष 814-878 ई.
- कृष्ण 878-914 ई.
2.गुर्जर-प्रतिहार
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- वत्सराज 783-795 ई.
- नागभट्ट 795-833 ई.
- रामभद्र 833-836 ई.
- मिहिरभोज 836-889 ई.
- महेन्द्र पाल 890-910 ई.
3. पाल
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- धर्मपाल 770-810 ई.
- देवपाल 810-850 ई.
- विग्रहपाल 850-860 ई.
- नारायणपाल 860-915 ई.
पाल वंश
आठवीं सदी से लेकर दसवीं सदी के मध्य तक भारत में तीन शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। इन साम्राज्यों के नाम थे पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट। इनमें से पाल साम्राज्य नौवीं शताब्दी के मध्य तक पूर्वी और उत्तरी भारत में, प्रतिहार साम्राज्य दसवीं शताब्दी के मध्य तक पश्चिमी एवं ऊपरी गंगा घाटी में तथा राष्ट्रकूट दक्षिण में दसवीं शताब्दी के अंत तक प्रभावशाली रहा।
आठवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में जिन प्रसिद्ध राजवंशों की स्थापना हुई, उनमें से पाल वंश भी एक था। इस वंश के शासकों ने बंगाल पर चार सौ वर्षों तक शासन किया। इस वंश के प्रमुख शासक तथा उनका योगदान इस प्रकार से है :
- गोपाल इस वंश का प्रथम शासक माना जाता है। वह 647 ई. में शशांक की मृत्यु के पश्चात् फैली अराजकता को समाप्त करके 750 ई. में शासक बना। उसने न केवल समस्त बंगाल को एकत्रित किया बल्कि वहां फैली अव्यवस्था को दूर कर शांति की स्थापना भी की। परिणामस्वरूप उसके समय में बंगाल पुनः एक संगठित तथा खुशहाल राज्य बन गया।
- इस वंश के अन्य प्रमुख शासक धर्मपाल, देवपाल, नारायण पाल आदि थे। नारायण पाल के समस्त उत्तराधिकारी कमजोर निकले परिणामस्वरूप पाल वंश का तीव्रता से पतन होता चला गया। अन्ततः 1197 ई. में गुहम्मद गौरी के सेनापति ने पाल वंश को सर्वथा नष्ट कर दिया।
पाल वंश का योगदान
पाल शासक अपने शासन काल में समस्त बंगाल को एकत्र करके शान्ति और खुशहाली लाने में सफल रहे।
- पाल शासकों ने बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित करके बंगाल व बिहार में अनेक विहारों, मठों तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया। दुर्भाग्य से बहुत सारे भवन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने नंष्ट कर दिए।
- भवनों के अतिरिक्त पाल शासकों ने अपने राज्य में बहुत सारे तालाबों तथा झीलों का निर्माण भी करवाया।
- उनके समय में मूर्तिकला तथा चित्रकला के क्षेत्रों में भी आश्चर्यजनक उन्नति हुई। इस काल में जो मूर्तियां बनाई गई, उनमें से महात्मा बुद्ध की बनी मूर्तियां विशेष रूप से बहुतआकर्षक हैं। ये मूर्तियां काले पत्थर तथा कांसे की बनी हुई हैं।
- पाल शासक शिक्षा तथा साहित्य के महान संरक्षक थे। शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने सोमपुरी, विक्रमशिला तथा उदन्तपुरी में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की।
- इनके अतिरिक्त नालंदा विश्वविद्यालय को आर्थिक सहायता देकर इसके सम्मान में और वृद्धि की। इन विश्वविद्यालयों में न केवल देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों बल्कि विदेशों (चीन, बर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका एवं दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों) से भी बड़ी संख्या में विद्यार्थी शिक्षा प्राप्ति के लिए आते थे। इस कारण जहां शिक्षा के प्रसार में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई वहां भारतीय संस्कृति को विदेशों में फैलने का अवसर भी मिला। इसके साथ-साथ संस्कृत साहित्य का विकास भी होता रहा।
- संध्याकरनंदी, चक्रपाणि, माधव तथा जीमूतवाहन इस काल के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वान थे। संध्याकरनंदी ने ‘रामचरित’, चक्रपाणि ने ‘चक्रदूत’, माधव ने ‘रोग निदान’ तथा जीमूतवाहन ने ‘कला विवेक’ तथा ‘व्यवहार मात्रक’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की।
पालों के राज्य में राजस्व एकत्र करने के लिए ग्रामपत्तियों और दशग्रामिकों के अधीन क्रमशः एक-एक और दस-दस गांव के एकांश हुआ करते थे। दशमिक प्रणाली में राजा द्वारा नियुक्त अधिकारी अधीनस्थ क्षेत्र का प्रशासन सीधे केन्द्र के नियंत्रण में करता था। पालों के अधीन राज-कर्मचारियों की बहुलता थी। जो सामन्ती राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत दिखाई देती है। पाल शासन के अधीन सामन्त समय-समय पर आर्थिक व सैनिक सहायता प्रदान करते रहते थे। इस प्रकार राजनैतिक एकता के साथ-साथ सांस्कृतिक क्षेत्र में भी पालों के 400 वर्षों के शासन काल में बंगाल एवं उत्तर भारत ने विशेष उपलब्धियां प्राप्त की।
प्रसिद्ध ग्रंथ एवं उनके रचयिता
- संध्याकरनंदी द्वारा रचित “रामचरित”
- चक्रपाणि द्वारा रचित “चनदूत”
- माधव द्वारा रचित “रोग निदान”
- जीमूतवाहन द्वारा रचित “कला विवेक तथा व्यवहार मात्रक”
गुर्जर प्रतिहार
प्रतिहार वंश की गणना राजपूतों के प्रसिद्ध वंशों में की जाती है। कुछ विद्वानों का मानना है की वे लोग ब्राह्मण थे, जो बाद में क्षत्रिय बन गये जो भी हो गुर्जर प्रतिहार शक्तिशाली शासक थे और वे राजस्थान के गुर्जर कबीले से संबंध रखते थे, जिस कारण इनको गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है। चंदबरदाई के अनुसार उनकी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई।
क्या आप जानते है? |
गुर्जर प्रतिहारों की कई शाखाएं थी उनमें से उज्जैन शाखा के शासक प्रमुख थे। उन्होंने ही त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया। |
ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार नागभट्ट प्रथम ने अरबों की सेना को हराया। |
गुर्जर प्रतिहारों की तीन शाखाएं
- प्रथम शाखा भृगुकच्छ (भड़ौच)
- द्वितीय शाखा मण्डोर (राजस्थान)
- तृतीय शाखा उज्जैन
प्रमुख शासक व उनका योगदान
- नागभट्ट प्रथम ने उज्जैन में गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना की और साम्राज्य का विस्तार किया।
- वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, रामभद्र, मिहिरभोज प्रथम इस वंश के सबसे महान शासक हुए। जिन्होंने कन्नौज पर अधिकार करके समस्त उत्तरी भारत पर प्रतिहारों के साम्राज्य का विस्तार किया।
- मिहिरभोज के पश्चात महिपाल, महेंद्रपाल द्वितीय, महिपाल द्वितीय, विजयपाल, राज्यपाल, त्रिलोचनपाल आदि शासकों ने शासन किया। ये शासक अयोग्य निकले।
- 1018 ई. में जब महमूद गजनी ने कन्नौज पर आक्रमण किया तो राज्यपाल बिना मुकाबला किए भाग गया। अतः महमूद गजनी ने कन्नौज में भारी लूटमार की। राजपूत इस अपमान को सहन नहीं कर सके। उन्होंने राज्यपाल को गिरफ्तार करके उसका वध कर दिया और उसके पुत्र त्रिलोचन पाल को राजगद्दी पर बिठा दिया।
- त्रिलोचन पाल ने 1027 ई. तक शासन किया। वह भी गुर्जर प्रतिहार वंश के गौरव को स्थापित करने में असफल रहा है। अतः उसकी मृत्यु के साथ ही इस महान वंश का भी अंत हो गया।
सामान्यतः प्रतिहार राज्य का प्रशासन सामन्त लोग चलाते थे। सामन्त उपाधियां धारण करते थे। वे समय-समय पर शासक को आर्थिक एवं सैनिक सहायता प्रदान करते थे। सामन्त लोग बड़ी शानौ-शौकत से रहते थे। राज्य में वन व खाली भूमि सामन्त की ही मानी जाती थी। प्रतिहारों के राज्य में चरागाह, परती जमीन व अन्य भूमि जमीन के उपभोग के अधिकार छोटे सामन्तों को दे दिए जाते थे। उस समय कृषि दासत्व की प्रथा भी प्रचलित थी।
क्या आप जानते है? |
मिहिरभोज प्रतिहार वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। दौलतपुर अभिलेख के अनुसार उसे ‘प्रभास’ तथा ग्वालियर अभिलेख में ‘आदि वराह’ कहा गया है। उसने विदेशी आक्रमणकारी हणों को पराजित किया। |
कला और वास्तुकला के क्षेत्र में योगदान
गुर्जर प्रतिहार शासन कला. वास्तुकला और साहित्य के महान संरक्षक थे। मिहिरभोज, वंश का सबसे उत्कृष्ट शासक था। इस अवधि की उल्लेखनीय मूर्तियों में विष्णु का विश्वरूप स्वरूप और कन्नौज से शिव और पार्वती का विवाह शामिल हैं। ओसिया, आभानेरी और कोटा (राजस्थान) में खड़े मंदिरों की दीवारों पर सुंदर नक्काशी देखी जा सकती है। ग्वालियर संग्रहालय में प्रदर्शित सुरसुंदरी नाम की महिला आकृति गुर्जर-प्रतिहार कला की सबसे आकर्षक मूर्तियों में से एक है। आमतौर पर प्रारंभिक प्रतिहारों को श्रेय दिए गए वास्तुशिल्प कार्यों के सबसे महत्त्वपूर्ण समूह ओसियन (राजस्थान) में हैं। पूर्व में चित्तौड़ के महान किले से आधुनिक गुजरात की दक्षिण सीमा तक प्रतिहारों ने 8वीं शताब्दी के अंत तक सभी कलाओं को अवशोषित कर लिया था।
राष्ट्रकूट वंश
राष्ट्रकूट वश दक्षिण के प्रसिद्ध राजवंशों में से एक था। इस राजवंश ने 742 ई. से 973 ई. तक शासन किया।
फ्लीट का कथन है कि राष्ट्रकूट उत्तरी भारत के राठौड़ वंश में से एक थे। सी.वी. वैद्य के अनुसार राष्ट्रकूट मराठा वंश में से थे। डॉ. भंडारकर का विचार है कि राष्ट्रकूटों के पूर्वज किसी राष्ट्र (राज्य) के गवर्नर थे, जिस कारण उनके राजवंश का नाम राष्ट्रकूट पड़ गया। इनकी कई शाखाओं की जानकारी मिलती है।
राष्ट्रकूट वंश की प्रमुख शाखाएं
- मानयूर शाखा
- अलिचपूरशाखा
- मान्यखेत शाखा
क्या आप जानते हैं?
राष्ट्रकूटों की मान्यखेत शाखा (मालखेड़ा, गुलबर्गा कर्नाटक) ने इतिहास में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की।
प्रमुख शासक व उनका योगदान
राष्ट्रकूट वंश का संस्थापक दन्तिदुर्ग था। उसने 742 ई. में इस वंश की स्थापना की थी। उसने कांची, कौशल तथा मालवा आदि राज्यों पर विजय प्राप्त करके राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना की। 752-753 ई. में उसने चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को पराजित करके सारे महाराष्ट्र को अपने अधिकार में ले लिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के पश्चात् दन्तिदुर्ग ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
- कृष्ण प्रथम एवं गोविंद द्वितीय: 756 ई. में दन्तिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम राज सिंहासन पर बैठा। उसने दन्तिदुर्ग द्वारा आरंभ किए गए कार्य को पूरा किया। उसने चालुक्य शक्ति का पूर्ण रूप से दमन कर दिया। उसने गंग शासक को पराजित करके उनके प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। कृष्ण प्रथम न केवल एक विजेता था बल्कि एक महान भवन निर्माता भी था। उसके द्वारा एलोरा में शिव की स्मृति में बनवाया गया कैलाश मंदिर अपनी उत्तम कला का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता है। 773 ई. में कृष्ण प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र गोविंद द्वितीय राज सिंहासन पर बैठा। वह बहुत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। इसलिए उसके छोटे भाई ध्रुव ने उसे सिंहासन से उतार दिया तथा स्वयं को राजा घोषित कर दिया।
2. ध्रुव : ध्रुव के राज सिंहासन पर बैठने के साथ ही राष्ट्रकूटों के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत हुई। उसने पहले दक्षिण के गंग, पल्लव, वेंगी तथा मालव राज्यों को पराजित करके उनके अनेक प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लिया। तत्पश्चात् उसने उत्तर भारत की ओर ध्यान दिया और प्रतिहार शासक वत्सराज व पाल शासक धर्मपाल को पराजित करके उनके कई प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। ध्रुव निःसंदेह भारत के योग्य शासकों में से एक था। उसके शासनकाल में राष्ट्रकूटों ने सम्मान व गौरव प्राप्त किया।
राष्ट्रकूटों के अन्य महान शासक गोविन्द तृतीय, अमोघवर्ष, कृष्ण तृतीय तथा इन्द्र तृतीय आदि थे।
इंद्र तृतीय जिसने 915 ई. से 927 ई. तक शासन किया, वह भी एक महान योद्धा था। उसने परमार तथा चालुक्य शासकों को पराजित किया। उसके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण सफलता प्रतिहार शासक महिपाल को हराकर कन्नौज पर अधिकार करना था। परिणामस्वरूप उसके सम्मान में बहुत वृद्धि हुई।
3. अन्य राष्ट्रकूट शासक : इंद्र तृतीय के बाद राष्ट्रकूट राज्य का पतन आरंभ हो गया था। उसके पश्चात् अमोघवर्ष द्वितीय, गोविंद चतुर्थ, अमोघवर्ष तृतीय, कृष्ण तृतीय तथा कर्क द्वितीय ने शासन किया। इन शासकों में से केवल कृष्ण तृतीय एक योग्य शासक सिद्ध हुआ लेकिन उसकी सफलताएं एक बुझते हुए दीपक की लौ मात्र थी। कर्क द्वितीय इस वंश का अंतिम शासक था। उसे 973 ई. में चालुक्य शासक तैल द्वितीय ने पराजित करके राष्ट्रकूट वंश का अंत कर दिया।
दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटों ने एक विस्तृत एवं गौरवमयी साम्राज्य की स्थापना की। अपनी वीरता द्वारा समूचे दक्षिण भारत को अपने प्रभाव के अधीन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने उत्तरी भारत के विख्यात केंद्र कन्नौज को कुछ वर्षों तक अपने अधीन रखा।
दक्षिण के इतिहास में 742 ई. से लेकर 973 ई. तक राष्ट्रकूटों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। उनकी सफलता को देखते हुए उनके समय को दक्षिण भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से स्मरण किया जाता है। दक्षिण में राष्ट्रकूटों ने चोल, पल्लव और चालुक्य शासकों को कड़ी पराजय दी थी।
राष्ट्रकूट शासकों की शासन व्यवस्था
- राष्ट्रकूट शासकों की शासन व्यवस्था बहुत उच्च कोटि की थी। उत्तराधिकार से संबंधित झगड़ों को दूर करने के लिए शासक प्रायः अपने बड़े पुत्र को युवराज नियुक्त करते थे।
- प्रशासन व्यवस्था की कार्य कुशलता के लिए साम्राज्य को राष्ट्रों (प्रांतों), विषयों और भुक्तियों में विभाजित किया जाता था। इनमें बहुत ही योग्य तथा ईमानदार कर्मचारियों को नियुक्त किया जाता था।
- नगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में कानून व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व कोष्टपाल अथवा कोतवाल का था।
- शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी। गांव का मुखिया जिसे ग्राम महतर कहा जाता था। उसके सहयोग के लिए देश ग्रामकूट (राजस्व अधिकारी) नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे।
- केंद्रीय सरकार गांवों की शासन व्यवस्था में बहुत कम हस्तक्षेप करती थी। लोगों पर कर का भार बहुत कम था।
- राष्ट्रकूट शासकों ने साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के लिए एक शक्तिशाली सेना की व्यवस्था की थी। उनके सैनिकों की कुल संख्या लगभग पांच लाख थी। सेना में भर्ती योग्यता के आधार पर की जाती थी।इस सेना के सहयोग द्वारा राष्ट्रकूट शासक महान विजय प्राप्त कर पाए।
- राजा: राजा की स्थिति सबसे महत्वपूर्ण थी। राजपद वंशानुगत था। कभी-कभी उत्तराधिकार को नजर अंदाज करके योग्य व्यक्ति को भी शासक बनाया जाता था। वे बड़ी-बड़ी उपाधियां धारण करते थे। जैसे ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’, ‘सुवर्गवर्ष’ आदि।
राष्ट्रकूट शासक राजधानी में ऐश्वर्य तथा वैभव के साथ रहते थे। वे बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण धारण करते थे। उनका दरबार बहुत वैभवशाली होता था। राजसभा में सामन्त, राजदूत, मंत्री, कवि, ज्योतिषि नियमित रूप से उपस्थित रहते थे। महिलाएं भी राजदरबार में उपस्थित रहती थीं।
2. युवराज : राष्ट्रकूट शासक अपने जीवन काल में ही युवराज की नियुक्ति कर देते थे। युवराज अपने पिता की शासन कार्यों में सहायता करता था। युवराज युद्धों में भी अपने पिता के साथ जाता था।
3. मन्त्रिपरिषद् : शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए राष्ट्रकूट शासकों ने मन्त्रिपरिषद का गठन किया था। अधिकांश मन्त्री सैनिक पदाधिकारी होते थे। मन्त्रियों का पद प्रायः पैतृक होता था।
4. राज्य व्यवस्था : राष्ट्रकूटों ने अपने नियन्त्रण वाले क्षेत्रों को अनेक राष्ट्रों (प्रान्तों) में बांटा हुआ था। राष्ट्र प्रधान अधिकारी ‘राष्ट्रपति’ कहलाता था। उसका मुख्य कार्य राष्ट्र में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना एवं भू-राजस्व इकट्ठा करना था।
5. विषय (जिला) : राष्ट्रकूटों ने अपने राज्य को ‘विषय’ में बांटा हुआ था। विषय का प्रमुख अधिकारी ‘विषयपति’ होता था। एक विषय में 1000 से लेकर 4000 तक गांव होते थे। इनका कार्य भी विषय में राष्ट्रपति के आदेशों का पालन करना होता था।
6. भुक्ति (तहसील) का प्रबंध: विषयों को आगे भुक्तियों में विभाजित किया गया था। भुक्ति का प्रधान भोगपति होता था। भुक्ति में 50 से 70 गांव होते थे।
7. नगर का प्रबंध: नगरों का प्रशासन स्वायत्त प्रणाली के अन्तर्गत संचालित होता था। नगरपति के नेतृत्व में शासन चलाया जाता था।
8.धार्मिक नीति: राष्ट्रकूट शासक हिंदू धर्म में विश्वास रखते थे। उन्होंने हिंदू देवी देवताओं से संबंधित अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। कृष्ण द्वितीय ने जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। राष्ट्रकूट शासकों के उदार और प्रगतिशील विचारों के संबंध में प्रमाण मिलता है।
9. वित्तीय व्यवस्था : राष्ट्रकूटों की आय का साधन भूमिकर था। जिसे ‘उद्रंग’ या भोग कर कहा जाता था। यह उपज का प्रायः चौथा भाग होता था। यह कर अनाज के रूप में लिया जाता था।
10. सैनिक प्रशासन : राष्ट्रकूटों के पास एक विशाल स्थाई सेना थी। उनकी सेना में पैदल, हाथी व घुड़सवार शामिल थे। युद्ध के समय सामन्त भी अपनी सेनाएं भेजकर समय-समय पर राष्ट्रकूट शासकों की सहायता करते थे।
11. साहित्य एवं कला का विकास: राष्ट्रकूट शासक कला के महान संरक्षक थे। उन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था। इनमें से एलोरा में निर्मित कैलाश मंदिर अपनी कला के कारण सुविख्यात है। यह मंदिर एकल चट्टान को काटकर बनाया गया है। इस काल में एलीफैंटा की गुफाओं का भी निर्माण किया गया। इन गुफाओं को देखकर व्यक्ति आज भी चकित रह जाता है।
राष्ट्रकूटों ने अपने दरबार में बहुत से विद्वानों को सरंक्षण दिया हुआ था। अमोघवर्ष स्वयं एक महान विद्वान था। उसने ‘कवि राजमार्ग’ नामक ग्रंथ की रचना की। इसे कन्नड़ भाषा का एक प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। जिनसेन ने राष्ट्रकूटों के संरक्षण में ‘आदि पुराण’ और ‘हरिवंश पुराण’ नामक विख्यात ग्रंथों की रचना की। महावीर आचार्य द्वारा रचित ‘गणितसार संग्रह’, शंकटायन का ‘अमोघवर्ष-वृत्ति’ और विक्रम भट्ट का ‘नलचंपू’ नामक ग्रंथ भी बहुत प्रसिद्ध थे। इनके अतिरिक्त उस समय के विख्यात विद्वानों के नाम पम्पा, पोन्ना और रन्ना थे। ये कन्नड़ काव्य के तीन रत्न माने जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राष्ट्रकूट शासकों ने न केवल राजनीतिक क्षेत्रों में बल्कि कला साहित्य और प्रशासन के क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण विकास किया।
त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम
कन्नौज के लिए चलने वाला यह लंबा तथा भयंकर संघर्ष तीनों राजवंशों पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूटों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस संघर्ष के कारण यह तीनों राजवंश बहुत कमजोर हो गए। यहां तक कि वे अपने-अपने प्रदेशों को भी नियंत्रण में न रख सके। राष्ट्रकूटों के प्रदेशों पर परवर्ती चालुक्यों ने अधिकार कर लिया। प्रतिहार राज्य अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया। बंगाल में पाल वंश का स्थान सेन वंश ने ले लिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष ने तीनों राजवंशों का पतन कर दिया।
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