ncert class 7 history chapter 1

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हर्षवर्धन और तत्कालीन समाज

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हर्षवर्धन का आरम्भिक जीवन

हर्षवर्धन का जन्म 4 जून 590 ई. को थानेश्वर के विशाल राज्य में हुआ। हर्षवर्धन के जन्म के बाद कई दिनों तक समस्त राज्य में उत्सव मनाया गया था। हर्षवर्धन की माता का नाम यशोमति देवी तथा पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। हर्षवर्धन अपनी माता की भाति सहनशील तथा पिता की भांति साहसी एवं प्रतापी राजा था। हर्षवर्धन तीन भाई-बहन थे। सबसे बड़े भाई का नाम राज्यवर्धन व बड़ी बहन का नाम राज्यश्री था। हर्षवर्धन सबसे छोटे थे। हर्षवर्धन अपने भाई का बहुत आदर करता था तथा अपनी बहन से अथाह प्रेम करता था। हर्षवर्धन बहुत ही विद्वान एवं बुद्धिमान था जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि हर्षवर्धन की शिक्षा-दीक्षा का उचित ढंग से प्रबंध किया था। हर्षवर्धन का बचपन उनकी माता यशोमति के भतीजे ‘भंडी’ के साथ बीता था। निरन्तर शास्त्राभ्यास व युद्धाभ्यास से वह एक श्रेष्ठ घुड़सवार योद्धा बने। हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट की रचना ‘हर्षचरित’ से यह जानकारी मिलती है कि जब हर्षवर्धन प्रतिदिन युद्धाभ्यास करते थे तो शस्त्रों के निशानों से उनके हाथ काले पड़ जाते थे।

बड़े भाई की आकस्मिक मृत्यु के उपरांत, मात्र 16वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री भंडी के परामर्श से हर्षवर्धन का राज्याभिषेक 606 ई. में थानेसर में किया गया।

राज्याभिषेक के उपरांत हर्ष ने सबसे पहले अपने शत्रुओं से बदला लिया। उस समय हर्षवर्धन को पता चला कि राज्यश्री कारागार से भागकर विंध्याचल के जंगलों में चली गई है। हर्षवर्धन ने दिवाकरभित्र नामक बौद्ध संन्यासी की सहायता से अपनी बहन को खोज लिया। उस समय वह सती होने जा रही थी। हर्षवर्धन अपनी बहन को सकुशल देखकर प्रसन्न हो गया। जब हर्षवर्धन अपनी बहन के साथ कन्नौज पहुंचे तो प्रजा ने उनका भव्य स्वागत किया। राज्यश्री के आग्रह पर हर्ष ने थानेसर को कन्नौज में मिला कर अपनी राजधानी कन्नौज को घोषित कर दिया। थानेसर तथा कन्नौज के मिलने से हर्षवर्धन की ताकत दोगुनी हो गई। इस प्रकार अपनी आरम्भिक समस्याओं पर काबू पाते ही हर्ष ने अपना विजय अभियान शुरू कर दिया।

क्या आप जानते हैं?

सम्राट हर्षवर्धन के राज्य की प्रथम राजधानी थानेसर(स्थाणेश्वर) सरस्वती नदी के किनारे स्थित थी और हर्ष कटीला पहले किला था जिसकी 52 बुर्जिया थी।

हर्षवर्धन की प्रमुख विजय

हर्षवर्धन एक कुशल योद्धा व सेनापति थे। उनकी प्रमुख विजय व साम्राज्य विस्तार निम्न प्रकार से हैं:

1.गौड़ प्रदेश की विजय

गौड़ (बंगाल) का शासक शशांक हर्ष का सबसे बड़ा शत्रु था। वह शैव मत को मानता था। वह बौद्ध मत का घोर विरोधी था। उसने पवित्र ‘गया’ का बौद्ध वृक्ष भी कटवा दिया था। शुरू में हर्ष ने भंडी को सेना के साथ गौड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा परन्तु भंडी और सेना उसका पूरी तरह से दमन नहीं कर सके। बाद में हर्ष ने कामरूप के राजा ‘भास्करवर्मन‘ से संधि कर ली तथा इन दोनों ने मिलकर शशांक को बुरी तरह से पराजित किया। अंत में शशांक को युद्ध छोड़कर जान बचाकर भागना पड़ा।

2.पांच प्रदेशों की विजय

ह्वेनसांग के अनुसार हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल के प्रारम्भिक 6 वर्षों (606 ई. से 612 ई. तक) पांच प्रदेशों के शासकों से निरंतर युद्ध किए। इन युद्धों के अंत में हर्य की ही विजय हुई और हर्ष ने इन्हें अपने राज्य में मिला लिया। ये पांच राज्य पंजाब, कन्नौज, बिहार, बंगाल और उड़ीसा थे। इन विजयों से हर्ष की प्रतिष्ठा व कीर्ति बढ़ गई थी।

3. वल्लभी की विजय

हर्षवर्धन के समय में ‘वल्लभी’ (गुजरात) एक शक्तिशाली व संपन्न राज्य था। भौगोलिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण था। हर्षवर्धन ने 630 ई. में एक विशाल सेना के साथ वल्लभी पर आक्रमण कर दिया। वहां ध्रुवसेन द्वितीय का शासन था। इस युद्ध में ध्रुवसेन की पराजय हुई और उसे भड़ौच के राजा दद्दा द्वितीय के पास शरण लेनी पड़ी। दद्दा के कहने पर हर्ष ने ध्रुवसेन का राज्य उसे लौटा दिया तथा ध्रुवसेन ने हर्षवर्धन की अधीनता स्वीकार कर ली। हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से करके उसे अपना जमाता बना लिया।

4. कामरूप की विजय

हर्षवर्धन ने कामरूप (असम) के शासक भास्करवर्मन को पराजित करके उसके राज्य को भी अपने अधीन कर लिया था किन्तु हर्ष ने शशांक को हराने के लिए भास्करवर्मन की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उसे उसका राज्य वापस कर दिया। भास्करवर्मन ने हर्ष की अधीनता पहले ही स्वीकार कर ली थी। कन्नौज सम्मेलन के दौरान उसने कई हाथी उपहार में दिए थे।

5. सिंध की विजय

प्रभाकरवर्धन ने सिंध के राजा को पराजित करके सिंध पर अधिकार कर लिया था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद अराजकता का लाभ उठाकर सिंध ने पुनः स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। हर्ष ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करके सिंध पर आक्रमण कर एक प्रभावशाली विजय प्राप्त की।

6. कश्मीर की विजय

हर्षवर्धन के शासनकाल में कश्मीर का राजा दुर्लभवर्धन था। ऐसा माना जाता है कि कश्मीर के एक विहार में महात्मा बुद्ध का एक पवित्र दांत रखा था जिसमें सदैव रोशनी रहती थी। हर्ष ने कश्मीर के राजा दुर्लभवर्धन को हराकर बलपूर्वक उससे अधीनता स्वीकार करवाई तथा महात्मा बुद्ध का पवित्र दांत ले जाकर कन्नौज के विहार में स्थापित करवाया।

7. नेपाल की विजय

बाणभट्ट के अनुसार हर्ष द्वारा बर्फीले प्रदेश में आक्रमण कर विजय प्राप्त की गई थी। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि यह नेपाल ही होगा। इसका कारण यह भी है कि नेपाल के शासक अंशुवर्मन ने अपने राज्य में ‘हर्षसंवत’ का प्रचलन आरम्भ किया था जो यह प्रमाणित करता है कि अंशुवर्मन ने भी हर्षवर्धन की अधीनता को स्वीकार किया था।

8. गंजम विजय

हर्ष की अंतिम विजय गंजम (उड़ीसा) की थी। यह प्रदेश पूर्वी तट (उड़ीसा) पर स्थित है। इस क्षेत्र पर हर्ष के आरम्भिक आक्रमण सफल नहीं रहे। अंत में 643 ई. में वह इस पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा क्योंकि इस समय पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु हो चुकी थी जो उसका समकालीन शासक था। उड़ीसा के 80 नगरों को उसने स्थानीय बौद्ध मंदिर को दान में दे दिया था।

Note :-

राज्याभिषेक : राजसिंहासन या गद्दी पर बैठने के समय होने वाला वैदिक संस्कार, राजतिलक ।

विहार: बौद्ध भिक्षुओं के रहने की जगह।

अराजकता: राजा न होने की स्थिति में फैली अव्यवस्था।

संवत: समय गणना का भारतीय मापदंड।

हर्षवर्धन का साम्राज्य :

हर्षवर्धन ने अपने सैनिक अभियानों के परिणामस्वरूप एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी। उसका साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में विंध्याचल तक पूर्व में कामरूप से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक फैला हुआ था।

विदेशों के साथ संबंध : हर्ष ने विदेशों के साथ भी बहुत अच्छे संबंध स्थापित किए थे। विदेशों से व्यापार होता था। विदेशों में राजदूत भेजे जाते थे तथा भारत में विदेशी यात्री भी आते थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग भी हर्षवर्धन के समय में ही भारत आया तथा आठ वर्ष हर्ष के दरबार में ही रहा। ह्वेनसांग को ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है।

पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध: हर्षवर्धन उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली शासक था तो दूसरी ओरपुलकेशिन द्वितीय दक्षिणी भारत का शक्तिशाली शासक था। हर्ष की भांति ही वह भी एक महत्वाकांक्षी राजा था। हर्ष द्वारा वल्लभी पर विजय के बाद पुलकेशिन द्वितीय शंकित हो गया और युद्ध अनिवार्य हो गया था। हर्ष ने पुलकेशिन का सामना करने के लिए पांच प्रदेशों से सेना एकत्र कर ली थी और 633 ई. में सेना के साथ हर्ष ने पुलकेशिन पर आक्रमण कर दिया। यह युद्ध नर्मदा नदी के किनारे पर हुआ। इस युद्ध में हर्ष की पराजय हुई।

 

हर्षवर्धन का शासन-प्रबंध

हर्षवर्धन न केवल एक महान विजेता और साम्राज्य-निर्माता ही था अपितु एक कुशल शासन प्रबंधक भी था। उसने अपने साम्राज्य में उच्च कोटि की शासन प्रणाली स्थापित की थी। उस समय शासन व्यवस्था का स्वरूप इस प्रकार से था :

1.राजा :- हर्षवर्धन, राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसने ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’, ‘परमभट्टारक’, ‘सार्वभौम’, ‘सकलोत्तरपथनाथ’, ‘शिलादित्य’ आदि उपाधियां धारण की थी। राजा की शक्तियां असीमित होती थी। वह सेना का सर्वोच्च सेनापति था और सर्वोच्च न्यायाधीश भी वही होता था। वह किसी को किसी भी पद पर नियुक्त कर सकता था, किसी की पदोन्नति कर सकता था तथा किसी को भी पदमुक्त कर सकता था। राजा का निर्णय अंतिम होता था।

2. मन्त्रीपरिषद् :हर्षवर्धन ने कुशल शासन-प्रबंधन के लिए एक सुसंगठित मन्त्रीपरिषद् का निर्माण किया था। उस समय योग्य और उत्कृष्ट लोगों को ही मन्त्रीपद पर नियुक्त किया जाता था। इन मन्त्रियों में सैनिक गुण होना भी आवश्यक था क्योंकि हर्ष के समय किसी भी मन्त्री को सैनिक अभियान के समय सेना का नेतृत्व करने के लिए कहा जा सकता था। मन्त्रीपरिषद् में निम्नलिखित प्रमुखमन्त्री थे –

    1. प्रधानमन्त्री –राजा का प्रमुख सलाहकार।
    2. महासंधिविग्रहाधिकृत – युद्ध व शांति मन्त्री।
    3. महाबलाधिकृत – सेनाध्यक्ष।
    4. महाप्रतिहार – महल का सुरक्षा मन्त्री।
    5. अष्टपटालिक – लेखा अधिकारी।
  • नोट –
  • परमभट्टारक सबसे बड़ा शासक।
  • सकलोत्तरपथनाथ सारे उत्तर क्षेत्र का स्वामी।

3. प्रान्तीय शासन: हर्ष ने अपने विशाल साम्राज्य को उचित ढंग से चलाने के लिए इसे अनेक शक्तियों (प्रांत) में बांट रखा था। ये शक्तियां सामंतों और महासामंतों में विभाजित थीं। ये वे लोग थे जिन्होंने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अप्रत्यक्ष रूप में ये अपने-अपने प्रांत के मुखिया भी थे। इन्होंने भूपाल, कुमार, लोकपाल, नृपति व महाराजा जैसी उपाधियां धारण की थी। इनमें प्रमुख वल्लभी का ध्रुवसेन द्वितीय, कामरूप का भास्करवर्मन, मगध का पूर्ववर्मन व जालंधर के उदित आदि थे। इसके प्रत्यक्ष नियंत्रण के क्षेत्र ‘भुक्ति’ कहलाते थे। उसके मुखिया को उपारिक या कुमारमात्य कहा जाता था।

4. स्थानीय शासन: भुक्ति (प्रांतों) को विषयों में बांटा गया था जिनका नेतृत्व विषयपति या आयुक्त करता था। उसकी नियुक्ति स्वयं शासक करता था। विषय आगे पथक में विभाजित थे जिनकी स्थिति आज के तहसील स्तर के अधिकारी की मानी जाती थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिसका प्रधान महतर कहलाता था। कई स्थानों पर ग्रामिक भी कहा जाता था। उसकी सलाह के लिए पंचायत होती थी।

5. सैनिक-प्रबंध : अश्व सेना, 1 लाख घुड़सवार, पैदल सेना, रथ सेना, हाथी सेना – 60 हजार हाथी।

सैनिकों की संख्या– 6 लाख।

☆ सेना का मुखिया – महाबलाधिकृत।

☆सेना का नेतृत्व करने वाला कटुक कहलाता था।

6. राजस्व व्यवस्था

आय आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था। यह कुल उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। इसे ‘भाग’ या ‘उद्रंग’ कहा जाता था। प्रजा स्वेच्छा से राजा को जो उपहार देती थी वह ‘बलि’ कहलाता था। इसके अतिरिक्त चुंगी कर, बिक्री कर, वन कर आदि थे।

व्यय : हर्षवर्धन निम्नलिखित पांच तरह से अपनी आय वितरित करते थे जो इस प्रकार है:

  1. दान देना – हर्षवर्धन एक दानवीर सम्राट था। उसने नालंदा विश्वविद्यालय को 200 गांव दान कर दिए थे। हर्षवर्धन ने धन के अतिरिक्त अपने वस्त्र आदि भी दान कर दिए थे।
  2. प्रजा हितकारी कार्य – हर्षवर्धन अधिकतर आय प्रजा के कल्याणकारी कार्यों पर खर्च करता था। जैसे- चिकित्सालय बनवाना, विश्रामगृह बनवाना, सड़कें बनवाना, पुल निर्माण, शिक्षा का प्रबंध. पानी का प्रबंध आदि में वह खर्च करता था।
  3. वेतन – हर्षवर्धन अपनी आय का एक भाग कर्मचारियों को वेतन देने में खर्च करता था। हर्षवर्धन के शासन में एक सेनापति से लेकर साधारण सिपाही को अपने गुजारे के लिए पर्याप्त वेतन दिया जाता था।
  4. सेना पर खर्च – हर्षवर्धन अपनी आय का एक बड़ा भाग सेना पर खर्च करता था। जिससे सेना के लिए अस्त्र-शस्त्र, कवच, कुंडल, घोड़े तथा हाथियों का प्रबंध किया जाता था।
  5. राज परिवार पर खर्च – आय का एक भाग राज-परिवार पर खर्च किया जाता था। राज-परिवार की जरूरत की वस्तुएं तथा महल की मरम्मत आदि पर खर्च शामिल था।

7. न्याययिक व्यवस्था

  1. हर्ष के साम्राज्य में कानून-व्यवस्था अच्छी थी। अपराध कम थे, दण्ड कठोर थे।
  2. अपराधियों से जांच के लिए अग्नि, जल, विष व तुला परीक्षा करवाई जाती थी।
  3. शांति बनाए रखने के लिए हर्ष ने आरक्षी (पुलिस) विभाग का भी गठन किया था।
  4. ‘दण्डपाशिक’ व ‘दण्डिक’ इसके मुख्य अधिकारी थे। उसके राज्य में गुप्तचर भी क्रियाशील रहते थे।
  5. न्याय करते समय पक्षपात नहीं होता था।
  6. अपराधी के अंग काटना व मृत्युदण्ड भी प्रचलन में था। सबसे बड़ा अपराध देशद्रोह था।

क्या आप जानते हैं?

हर्ष के साम्राज्य में शासन का कार्य ईमानदारी से होता था परंतु इतनी अच्छी कानून व्यवस्था होते हुए भी मार्ग सुरक्षित नहीं थे। स्वयं ह्वेनसांग को चोर-डाकुओं का सामना करना पड़ा तथा दो बार उसे भी लूट लिया गया।

8. सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था

हमें हर्ष काल की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी तत्कालीन लेखन जैसे कि बाणभट्ट द्वारा व चीनी स्रोतों से मिलती है।

सामाजिक व्यवस्था

  1. वर्ण व्यवस्था : उस समय समाज में वर्ण व्यवस्था विद्यमान थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रआदि। संभवतः उपजातियों को मिश्रित जाति कहा जाता था। ब्राह्मण समाज को शिक्षा देते थे तथा पवित्र कार्य पूरे करवाते थे। ये प्रशासनिक कार्यों में भी राजा को सलाह देते रहते थे। क्षत्रिय रक्षा का कार्य करते थे एवं सैनिक के रूप में कार्यभार इन्हीं के कन्धों पर था। वैश्य व्यापारिक कार्यों में संलग्न थे एवं समाज की आवश्यकता की पूर्ति इन्हीं के द्वारा पूर्ण की जाती थी। शूद्रों का कार्य सेवा करना था। जैसे कृषि करना, पशु पालन, घर बनाना लकड़ी एवं धातु के औजार बनाना आदि।
  2. विवाह : अंतर्जातीय विवाह उस समय मान्य थे। अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह को भी धीरे-धीरे स्वीकृति मिल जाती थी। उत्तरी व दक्षिणी भारत के विवाह नियमों में प्रायः भिन्नता थी। इसी तरह उत्तर भारत में अलग-अलग जातियों के विवाह के रीति-रिवाज में भी भिन्नता थी। समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी। उच्च वर्षों में स्त्रियां पुनर्विवाह नहीं करती थी, किंतु शूद्रों व वैश्यों में पुनर्विवाह होता था। सतीप्रथा प्रचलित थी। विधवा स्त्री श्वेत वस्त्र धारण करती थी।
  3. उच्च नैतिक जीवन: ह्वेनसांग ने भारतीयों को उच्च प्रतिष्ठावान बताया। वे पाप पुण्य का सदैव ध्यान रखते थे। यहां ईमानदारी एवं कर्तव्य निष्ठा सदैव बनी रहती थी। अतिथि को भगवान का दर्जा दिया जाता था।
  4. आवास: नगर साधारण एवं निश्चित योजना के अनुसार बनते थे और उनके चारों ओर सुरक्षा के लिए परकोटे बनाये जाते थे। नगरों में कई मंजिलों के भवन होते थे। घरों के निर्माण में पत्थरों तथा पकाई गई ईंटों का प्रयोग होता था। गांव का आकार काफी छोटा था। मकान सामान्यता कच्चे होते थे। जिनमें कच्ची मिट्टी व लकड़ी का प्रयोग किया जाता था।
  5. खान पान : लोग सादा भोजन करते थे। गेहूं तथा चावल जनसाधारण का भोजन था। घी, दूध, दही, गुड़-शक्कर सरसों का तेल आदि भोजन के मुख्य अंग थे। प्याज और लहसुन का प्रयोग नहीं किया जाता था। कुछ लोग मांसाहारी भी होते थे। दालें, विभिन्न तरह की सब्जियां एवं फलों का प्रयोग किया जाता था।

आर्थिक व्यवस्था

सभी स्रोतों से यह स्पष्ट है कि देश की आर्थिक स्थिति उस समय अत्यधिक उन्नत एवं मजबूत थी। कृषि लोगों की आजीविका का मुख्य आधार था। ह्वेनसांग लिखता है कि भोजन और फलों का उत्पादन भरपूर मात्रा में किया जाता था। हर्षचरित के अनुसार, चावल, गेहूं, ईख आदि के साथ सेब और अंगूर भी उगाए जाते थे। सिंचाई की अच्छी व्यवस्था थी। हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में तुलायंत्र (जल पंप) का उल्लेख है। कृषि से अलग, वाणिज्य व्यवसाय और व्यापार भी प्रगति पर थे। कुछ शहर अपने व्यापार के कारण काफी प्रसिद्ध और समृद्ध हो गए थे: जैसे थानेसर, उज्जैनी और कन्नौज। देश में आंतरिक और बाहरी दोनों तरह का व्यापार होता था। व्यापार काफी समृद्ध था। कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग, बर्तन उद्योग एवं औजार उद्योग प्रमुख उद्योग थे।

 

हर्षवर्धन का चरित्र

हर्षवर्धन के महान चरित्र, सफलताओं व उपलब्धियों का वर्णन बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ में मिलता है जो कि निम्नलिखित है:

  1. कुशल शासन-प्रबंधक एवं महान सेनापति: हर्षवर्धन केवल एक विजेता ही नहीं अपितु एक कुशल शासन-प्रबंधक भी था। उसने अपने शासन को प्रांत, जिलों व गांवों में बांटा हुआ था। वह बहुत दयालु शासक था। वह प्रजा का हाल जानने के लिए राज्य का भ्रमण करता था। उसने एक विशाल सेना का गठन कर रखा था। इसी सेना के बल पर हर्ष ने उत्तर भारत के बहुत से राजाओं को हराकर उनसे अपनी अधीनता स्वीकार करवाई। हर्ष ने अनेक सफलताएं प्राप्त की जिनके आधार पर उसकी तुलना समुद्रगुप्त से भी की जाती है।
  2. प्रजा-प्रेमी: हर्षवर्धन अपनी जनता से बहुत प्रेम करता था। उसने अशोक की भांति अपना समस्त जीवन प्रजा कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था। वह सदैव दीन-दुखियों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। वह अपने राजकोष से एक निश्चित मात्रा में धन, प्रजा-कल्याण के लिए, चिकित्सालयों, विद्यालयों, भवनों, सड़कों इत्यादि पर खर्च करता था।
  3. परिवार प्रेमी: हर्ष प्रजा प्रेमी तो था ही साथ ही उसका अपने परिवार के प्रति भी बहुत लगाव था। जब उसके भाई राज्यवर्धन की धोखे से हत्या कर दी गई तो वह न केवल अपने भाई की हत्या का बदला लेता है बल्कि अपनी बहन राज्यश्री को भी ढूंढ निकालता है। इससे अनूठा परिवार-प्रेम किसी राजा में देखने को नहीं मिलता है।
  4. महान दानी: हर्ष अपनी दानशीलता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। उसने दान देने के लिए एक कोष का गठन कर रखा था जिससे वह प्रत्येक 5 वर्ष बाद प्रयाग सम्मेलन में भरसक दान करता था।
  5. धार्मिक सहनशील: हर्ष एक सहनशील राजा थे। उसमें धार्मिक कट्टरता नाम मात्र भी नहीं थी। ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष आरम्भ में शैव मत का अनुयायी था लेकिन बाद में वह बौद्ध धर्म को भी मानने लगा। प्रयाग सभा में उसने पहले दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की, तीसरे दिन शिव की उपासना की। इस सभा में उसने 500 ब्राह्मणों को भोजन करवाया वस्त्र आदि का दान भी दिया। उसके राज्य में हिन्दू, बौद्ध, जैन, सभी धमों के लोग रहते थे।

क्या आप जानते हैं?

ह्वेनसांग के अनुसार, “643 ई. में प्रयाग की सभा में हर्ष ने अपना सब कुछ दान में दे दिया था। यहां तक की उसने अपने वस्त्र भी दान कर दिए थे तथा अपनी बहन राज्यश्री से वस्त्र मांगकर धारण किए थे।“

  1. बौद्ध धर्म का प्रचारक : हर्ष अशोक की भांति बौद्ध धर्म का प्रचारक था। उसने बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक कार्य किए। उसने अशोक की तरह अहिंसा का पालन किया तथा पशु-वध व शिकार करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। उसने बौद्ध मठों व विहारों का निर्माण करवाया। वह प्रत्येक वर्ष बौद्ध सभा का आयोजन करता था। उसने धर्म प्रचार के लिए विदेशों में राजदूत भेजे। हर्ष ने 200 करमुक्त गांव नालंदा विश्वविद्यालय को दिए क्योंकि उसमें बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी। हर्ष ने बौद्ध धर्म के लिए इतने कार्य किए कि उनका नाम अशोक और कनिष्क के समान ही बौद्ध धर्म के इतिहास में अमर हो गया।
  2. विद्वानों को संरक्षण : विद्वानों को हर्ष का विशेष संरक्षण प्राप्त था। हर्ष ने अपने दरबार में अनेक साहित्यिक और बौद्ध विद्वानों को स्थान दे रखा था। उसने इन विद्वानों के लिए अनेक मठ एवं विहार बनवाए। उसके दरबार में बाण, दिवाकर, मयूर, जयसेन, एवं भास जैसे विद्वान रहते थे।
  3. नाटककार सम्म्राट, कला एवं साहित्य को संरक्षण : हर्ष, कला और साहित्य प्रेमी सम्राट था। वह स्वयं एक नाटककार एवं विद्वान शासक था। उसने तीन नाटकों ‘रत्नावली’, ‘नागानंद’ व ‘प्रियदर्शिका’ की रचना की। बाणभट्ट ने उसे काव्य रचना में दक्ष बताया है। हर्ष की तुलना कालिदास से की गई है। उसने बाणभट्ट जैसे महान साहित्यकार को संरक्षण दिया, जिसने ‘हर्षचरित’ एवं ‘कादम्बरी’ जैसे ग्रन्थों की रचना की। उसके दरबार का दूसरा अनमोल मोती जयसेन थे जिसने योगशास्त्र, वेद, ज्योतिष, भूगोल, गणित व चिकित्सा आदि विषयों पर लिखा। हर्ष ने जयसेन को 80 गांवों की आय दान में दे दी थी परन्तु उसने इसे स्वीकार नहीं किया। मयूर व मातंग जैसे विद्वान भी उसके दरबार में रहे। मयूर ने ‘सूर्यशतक’ की रचना की।
  4. शिक्षा का संरक्षक : शिक्षा को हर्ष का विशेष संरक्षण प्राप्त था। हर्ष के समय में नालंदा विश्वविद्यालय सर्वाधिक प्रसिद्ध था। हर्ष ने 200 करमुक्त गांव नालंदा विश्वविद्यालय को खर्च चलाने के लिए दान किए थे। वह अपने राज्य की आय का एक चौथाई भाग विद्वानों में पुरस्कार के रूप में बांटता था।

ह्वेनसांग का हर्ष के बारे में विवरणः ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था। उसे ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। वह हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया तथा लगभग आठ वर्षों तक हर्ष के दरबार में रहा। वह 629 ई. में भारत यात्रा के लिए चीन से चला। वह बौद्ध धर्म के तीर्थस्थानों व बौद्ध धर्म के बारे में जानने के लिए भारत आया था। ताशकंद, समरकंद तथा बल्ख से होता हुआ वह भारत के गांधार प्रदेश में पंहुचा। यहां से चलकर उसने पंजाब, कपिलवस्तु, गया, सारनाथ, श्रावस्ती, कुशीनगर आदि स्थानों की यात्रा की। उसने दो साल तक नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की।

दक्षिण भारत में घूमने के बाद वह 644 ई. में चीन के लिए प्रस्थान कर गया। चीन पहुंचकर उसने अपनी भारत-यात्रा का वृतान्त लिखा जिसका शीर्षक था सी-यू-की (पश्चिमी देश का वृतान्त)। यह ग्रंथ हर्ष कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालता है।

हर्ष एक विजेता ही नहीं चल्कि एक कुशल शासन प्रबंधक, दयालु, दानवीर, साहित्य का संरक्षक तथा उच्चकोटि का विद्वान सम्म्राट था। हर्ष प्राचीन काल के भारतीय इतिहास का महान सम्राट तथा महान साम्राज्य निर्माता था। उसने सम्राट अशोक की भांति सम्पूर्ण शक्ति को जन सेवा में लगा दिया। भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति में योगदान देकर राष्ट्र को अग्रसर किया। हर्ष के प्रत्येक कार्य में समाज को उन्नत बनाने का ध्येय विद्यमान होता था।

 

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