ncert science class 8 chapter 1

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विश्व

chapter 1

आप जानते हैं कि पृथ्वी पर ऐसी विशिष्ट परिस्थितियाँ विद्यमान हैं, जो हमारी अब तक की जानकारी के अनुसार, किसी अन्य ग्रह पर नहीं पाई जातीं। ये विशिष्ट परिस्थितियाँ हैं- पृथ्वी पर वायु, जल, मिट्टी एवम् खनिजों की उपस्थिति तथा उसके ताप का न बहुत अधिक और न बहुत कम होना। ऐसा पृथ्वी पर सूर्य से उपयुक्त मात्रा में ऊर्जा की उपलब्धता के कारण होता है। मुख्यतः इन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण पृथ्वी पर जीवन का प्रारंभ और विकास संभव हुआ।

आप यह भी जानते हैं कि पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है, जिसके बारे में हमें ज्ञान है कि इस पर जीवन विद्यमान है। पृथ्वी, आठ अन्य ग्रहों के साथ सूर्य की परिक्रमा करती है। इस अध्याय में हम सूर्य के इन ग्रहों के विषय में अध्ययन करेंगे। हम सूर्य की परिक्रमा करने वाले कुछ अन्य खगोलीय पिंडों के विषय में भी जानकारी प्राप्त करेंगे।

INTRODUCTION

किसी ऐसी अंधेरी रात में, जब आकाश में न तो बादल हों और न ही चंद्रमा, तब हम आकाश में अनेक तारों को टिमटिमाते हुए देख सकते हैं। इनमें से कुछ तो बहुत चमकीले होते हैं और कुछ इतने धुंधले कि आसानी से दिखाई नहीं पड़ते। प्राचीन काल में, जब किसी भी प्रकार की घड़ियाँ नहीं थीं, तो हमारे पूर्वज आकाश में तारों की स्थिति के आधार पर समय और पृथ्वी पर अपनी स्थिति निर्धारित करते थे। तारों की स्थिति का ज्ञान विशेष रूप से यात्रियों के लिए महत्त्वपूर्ण था – क्योंकि इसकी सहायता से वे अपनी यात्रा की दिशा सुनिश्चित करते थे। आजकल हम शायद ही कभी तारों की स्थिति का उपयोग इस उद्देश्य के लिए करते हों, पर फिर भी, इनके विषय में अध्ययन का अपना विशेष महत्त्व है। तारों के अध्ययन से हमें यह जानने में सहायता मिलती है कि विभिन्न खगोलीय पिंड किस प्रकार बने और ‘विश्व किस प्रकार अस्तित्व में आया।

इस अध्याय में हम तारों के कुछ ऐसे समूहों का भी अध्ययन करेंगे जो आकाश में कोई सुनिश्चित आकृति बनाते प्रतीत होते हैं। आकृति के आधार पर ऐसे कई तारा समूहों के प्रतिरूपों (पैटनों) को निश्चित नाम दिए गए हैं। आपने संभवतः राशियों के नाम सुने होंगे। राशियाँ ऐसे ही कुछ तारा समूहों के प्रतिरूपों पर आधारित हैं जिन्हें उनकी आकृति के आधार पर विशिष्ट नाम दिए गए हैं। आप जानते हैं कि चंद्रमा पृथ्वी का एक प्राकृतिक उपग्रह है। यह निरंतर पृथ्वी की परिक्रमा करता है। आजकल अनेक मानव निर्मित उपग्रह भी पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं। इन उपग्रहों के बहुत से उपयोग हैं। उदाहरण के लिए दूरदर्शन सम्प्रेषण, टेलिफोन एवम् इंटरनेट द्वारा संसार के किसी भी भाग में संदेश भेजना मानव निर्मित उपग्रहों के कारण ही संभव हो सका है। इस अध्याय में हम इनके विषय में कुछ प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करेंगे।

रात्रि का आकाश

दिन के समय केवल सूर्य ही आकाश में दिखाई देता है। सूर्यास्त होते ही अंधेरा हो जाता है तथा आकाश हज़ारों चमकीले तारों से भर जाता है। तारों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि पृथ्वी से देखने पर वे टिमटिमाते हुए दिखाई देते हैं। रात्रि में, विशेषकर वर्षा के बाद, यदि आकाश साफ हो तो आप, नंगी आँखों से लगभग 3000 तारे देख सकते हैं। परन्तु किसी अच्छी दूरबीन (दूरदर्शक) की सहायता से बहुत से अन्य तारों को भी देखा जा सकता है।

चंद्रमा एक अन्य प्रमुख खगोलीय पिण्ड है जो हमें सामान्यतः रात्रि में दिखाई देता है। आप रात्रि के समय आकाश में तारों जैसे प्रतीत होने वाले कुछ अन्य पिंड भी देख सकते हैं जो टिमटिमाते प्रतीत नहीं होते। ये ग्रह हैं जो हमारी पृथ्वी की ही भाँति सूर्य की परिक्रमा करते हैं। रात में, यदि आप काफी समय तक आकाश का अवलोकन करें, तो कुछ ‘टूटते तारे’ भी देख सकते हैं। यदि संयोग से, तारों की पृष्ठभूमि में आप कभी कुछ क्षणों के लिए आकाश में प्रकाश की एक चमकीली रेखा खिंचती हुई देखें तो यह संभावना है कि आपने कोई ‘टूटता तारा’ देखा है। तारे, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, ‘टूटते तारे’ कुछ ऐसे खगोलीय पिंड हैं जो हमारे विश्व के घटक हैं। आइए, इनमें से प्रत्येक के विषय में कुछ और अधिक जानकारी प्राप्त करें।

तारे 

तारे ऐसे खगोलीय पिंड हैं, जो लगातार प्रकाश एवम् ऊष्मा उत्सर्जित करते हैं। अतः, सूर्य भी एक तारा है। सूर्य हमें अधिक बड़ा इसलिए दिखाई देता है क्योंकि यह अन्य तारों की तुलना में पृथ्वी के अधिक निकट है। अन्य तारे हमें बिंदु जैसे इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि वे हमसे बहुत अधिक दूरी पर हैं। आप में से कुछ संभवतः यह सोचते होंगे कि तारे केवल रात्रि में ही आकाश में प्रकट होते हैं, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। दिन के समय आकाश में सूर्य के प्रकाश की दमक के कारण वे हमें दिखाई नहीं देते।

  • अधिकाँश तारे पृथ्वी से इतनी अधिक दूरी पर हैं कि उनके प्रकाश को भी हम तक पहुँचने में लाखों वर्ष लग सकते हैं। इसलिए तारों की दूरियाँ प्रकाश वर्ष में व्यक्त की जाती हैं।
  • एक प्रकाश वर्ष उस दूरी को कहते हैं जो प्रकाश 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड की चाल से एक वर्ष में तय करता है। अतः, प्रकाश वर्ष दूरी का मात्रक है और इसका मान 365 × 24 × 60 × 60 × 300000 किलोमीटर के बराबर अर्थात् 9460000000000 km (या 9.4 × 1012 km) है।
  • पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 150000000 km है, अर्थात् सूर्य से प्रकाश को पृथ्वी तक पहुँचने में लगभग 8 मिनट 20 सेकंड (8.3 मिनट) लगते हैं।
  • सूर्य के बाद, पृथ्वी के सबसे निकट स्थित तारे का नाम “अल्फा-सेंटॉरी” है जिसकी दूरी लगभग 4.3 प्रकाश वर्ष है।
  • सूर्य सहित सभी तारे, किसी न किसी खगोलीय पिंड या पिंड समूह की तीव्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं। परंतु, उच्च चाल से गतिशील होने पर भी पृथ्वी से देखने पर हमें किन्हीं दो तारों के बीच की दूरी परिवर्तित होती प्रतीत नहीं होती। इसका कारण यह है कि तारे हमसे इतनी अधिक दूरी पर हैं कि उनके बीच की दूरी में होने वाले परिवर्तनों का बोध हमें कुछ वर्षों में, यहाँ तक कि पूरे जीवन काल में भी नहीं हो पाता।
  • एक तारा ऐसा है जो हमें स्थिर प्रतीत होता है। यह तारा उत्तर दिशा में स्थित है और इसे हम ध्रुव तारा या पोल स्टार कहते हैं। हमारे पूर्वज यात्रा करते समय दिशा ज्ञात करने के लिए ध्रुव तारे का उपयोग सर्वाधिक करते रहे हैं।

तारा-मण्डल

पृथ्वी से देखने पर तारों का कोई समूह किसी विशेष आकृति का आभास देता प्रतीत होता है। हमारे पूर्वजों ने ऐसे कई तारा-समूहों में कुछ आकृतियों की कल्पना की और उनको विशिष्ट नाम दिए। तारों के किसी ऐसे समूह को तारा-मण्डल कहते हैं। कुछ आसानी से पहचाने जा सकने वाले तारा-मण्डल हैं- वृहत-सप्तर्षि या उर्सा मेजर, लघु-सप्तर्षि या उर्सा माइनर एवम् मृग या ओरायन।

  1. वृहत-सप्तर्षि तारा-मण्डल – इसमें बहुत से तारे हैं जिसमें सात सर्वाधिक चमकदार तारे हैं जो आसानी से दिखाई देते हैं। इन तारों से बना तारा-मण्डल सामान्यतया वृहत सप्तर्षि या बिग डिपर कहलाता है।
    • बिग डिपर के सात प्रमुख तारे किसी बड़ी करछुल या प्रश्न चिह्न जैसी आकृति बनाते प्रतीत होते हैं।
    • करछुल के शीर्ष भाग पर स्थित दो तारे संकेतक तारे कहलाते हैं क्योंकि इनको मिलाने वाली रेखा ध्रुव तारे की ओर संकेत करती है तथापि वृहत-सप्तर्षि, तारा-मण्डल के सभी तारों को देख पाना कठिन होता है।

    2.  लघु-सप्तर्षि तारा-मण्डल –  इसमें भी अधिक चमकने वाले सात प्रमुख तारे हैं। इन तारों से बना तारा-मण्डल सामान्यतया                                                            लघु-सप्तर्षि  या स्माल डिपर कहलाता है।ध्रुव तारा लघु-सप्तर्षि (स्माल डिपर) के हैंडल के सिरे पर स्थित                                                       होता है। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में इस तारा-मण्डल को प्रायः बसंत ऋतु में देखा जा सकता है

     3.  मृग या  ओरायनमृग या  ओरायन एक ऐसा तारा-मण्डल है जिसे शीत-ऋतु में देखा जा सकता है। मृग आकाश के सर्वाधिक                 भव्य तारा-मण्डलों में से एक है। इसमें भी सात चमकीले तारे हैं।

    • जिनमें से चार किसी चतुर्भुज की आकृति बनाते प्रतीत होते हैं।
    • इस चतुर्भुज के एक कोने पर सबसे विशाल तारों में एक बीटलगीज़ नाम का तारा स्थित है जबकि दूसरे विपरीत कोने पर रिगेल नामक अन्य चमकदार तारा स्थित है।
    • मृगं के अन्य तीन प्रमुख तारे तारा-मंडल के मध्य में एक सरल रेखा में अवस्थित हैं।

 

आकाश में सूर्य को छोड़कर अन्य सभी खगोलीय पिंडों की तुलना में चंद्रमा सबसे अधिक चमकदार दिखाई देता है।

अमावस्या की रातपूर्णिमा की रात के बाद चंद्रमा के चमकदार भाग की आकृति प्रतिदिन घटती जाती है। पंद्रहवें दिन चंद्रमा हमें                                        दिखाई नहीं देता। इसे अमावस्या की रात कहते हैं

पूर्णिमा की रात – अमावस्या की रात के बाद दिनों दिन चंद्रमा का चमकदार भाग बढ़ता जाता है और पंद्रहवें दिन उसका चमकदार                                   भाग पुनः पूर्ण चंद्र की आकृति प्राप्त कर लेता है। पूर्णिमा की रात में आप चंद्रमा की संपूर्ण डिस्क देख सकते हैं।

चंद्रमा की कलाएँ – चंद्रमा के चमकदार भाग के इस प्रकार घटने-बढ़ने के क्रम को चंद्रमा की कलाएँ कहते हैं।

क्या आपने कभी यह सोचा है कि चंद्रमा की कलाएँ क्यों दिखाई देती है?

जैसाकि आप जानते हैं चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करने के साथ-साथ पृथ्वी सहित सूर्य की परिक्रमा भी करता है। परिणामतः सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी एवम् चंद्रमा की स्थिति प्रतिदिन बदलती रहती है।

पूर्णिमा के दिन पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के मध्य होती है। अतः इस दिन चंद्रमा का पूर्ण पटल दिखाई पड़ता है। अमावस्या के दिन चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के मध्य होता है, अतः सूर्य का प्रकाश चंद्रमा के उस भाग पर पड़ता है जो हमारी ओर नहीं है। अतः हम चंद्रमा को नहीं देख पाते। यद्यपि उसका आधा पृष्ठ सदैव सूर्य के प्रकाश द्वारा प्रकाशित होता है। परंतु अमावस्या से ठीक अगले दिन पृथ्वी के जिस भाग पर हम हैं, उससे चंद्रमा का केवल चापाकार (नवचंद्र) भाग ही प्रकाशित दिखाई पड़ता है। सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित चंद्रमा का यह दृश्य भाग दिन-प्रतिदिन आकार में बढ़ता जाता है और पूर्णिमा को इसका पूर्ण पटल फिर दिखाई देने लगता है।

चंद्रमा पृथ्वी के परितः अपनी एक परिक्रमा 27.3 दिन में पूरी करता है। परंतु उसी काल में, पृथ्वी अपनी कक्षा में थोड़ी आगे बढ़ जाती है। इसीलिए पृथ्वी से देखने पर, किसी अमावस्या की रात से इससे अगली अमावस्या की रात के बीच, चंद्रमा पृथ्वी के परितः एक परिक्रमा पूरी करने में 29.5 दिन का समय लेता हुआ दिखाई पड़ता है। चांद्र कलेन्डरों का निर्माण इसी आधार पर होता है।

ग्रह

रात को आकाश में कुछ ऐसे चमकीले पिण्ड भी दिखाई देते हैं जो देखने में तारों जैसे ही लगते हैं। इनमें से कुछ तो तारों की तुलना में अधिक चमकदार एवम् बड़े दिखाई देते हैं। ग्रह ऐसे खगोलीय पिण्ड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं। ये स्वयं प्रकाश उत्सर्जित नहीं करते। ग्रह हमें तारों की भांति चमकीले इसलिए दिखाई देते हैं, क्योंकि ये अपने ऊपर पड़ने वाले सौर प्रकाश को परावर्तित करते हैं। ये तारों की तरह टिमटिमाते नहीं हैं। कुछ ग्रहों की पहचान प्राचीन काल में ही कर ली गई थी। प्राचीन खगोलविदों ने इन ग्रहों को –

      1. बुध (मर्करी),
      2. शुक्र (वीनस),
      3. पृथ्वी (अर्थ),
      4. मंगल (मार्स),
      5. बृहस्पति (जुपिटर) एवम्
      6. शनि (सैटर्न) आदि नाम दिए थे।

वे इन छः ग्रहों को इसलिए पहचान सके क्योंकि ये ग्रह ध्यान से देखने पर नंगी आँखों से दिखाई देते हैं। अन्य तीन ग्रहों की खोज तभी संभव हो पाई जब रात्रि के आकाश का अवलोकन करने के लिए दूरदर्शक (दूरबीन) उपलब्ध हो गए। ये तीन ग्रह हैं- यूरेनस, नेप्ट्यून एवम् प्लूटोइस प्रकार सूर्य के कुल नौ ग्रह हैं जिनमें प्रत्येक अपने निश्चित पथ पर सूर्य की परिक्रमा करता है जिसे उसकी कक्षा कहते हैं

कुछ ग्रहों के ज्ञात उपग्रह हैं। उपग्रह एक ऐसा खगोलीय पिंड है, जो किसी दूसरे खगोलीय पिंड की परिक्रमा करता है। पृथ्वी का केवल एक प्राकृतिक उपग्रह है- चंद्रमा। बृहस्पति, शनि, नेप्ट्यून जैसे कुछ ग्रहों के एक से अधिक प्राकृतिक उपग्रह या चंद्रमा हैं। आइए, ग्रहों के विषय में और विस्तार से अध्ययन करें।

  1. बुध ग्रह (मर्करी)

बुध ग्रह सूर्य के सबसे निकट है। इसका आमाप लगभग चंद्रमा जितना है तथा यह पृथ्वी की तुलना में बहुत छोटा है। यह सूर्य के बहुत निकट होने के कारण अधिकांश समय सूर्य की दमक में छिपा रहता है। तथापि समय-समय पर यह सूर्योदय से कुछ पहले या सूर्यास्त के तुरंत बाद क्षितिज के पास दिखाई देता है। यह किसी अत्यधिक चमकीले तारे जैसा दिखाई देता है और प्रायः इसे प्रातस्तारा या सांध्यतारा कहा जाता है।

  • वर्ष में आठ सप्ताह तक यह पूर्वी आकाश में सूर्योदय से पहले दिखाई देता है तब इसे प्रातस्तारा अर्थात् भोर का तारा कहते हैं।
  • यह आठ सप्ताह तक आकाश के पश्चिमी भाग में सूर्यास्त के तुरंत बाद भी दिखाई देता है, तब इसे सांध्य तारा कहते हैं।
  • यद्यपि बुध तारा नहीं है फिर भी अपनी चमकं के कारण ही इसे प्रातस्तारा या सांध्य तारा कहा जाता है।
  • बुध के बहुत से लक्षण चंद्रमा से मेल खाते हैं। दोनों के आमाप एवम् द्रव्यमान लगभग बराबर हैं।
  • चंद्रमा की ही भाँति बुध पर भी किसी तरह का वायुमण्डल नहीं है। इसका पृष्ठ भी चट्टानी एवम् पर्वतीय है।

   2. शुक्र ग्रह (वीनस)

सूर्य से बढ़ती दूरी के पदों में शुक्र ग्रह दूसरे नम्बर पर है। यही वह ग्रह है जिसे प्रायः हमारे पूर्वज प्रातस्तारा या सांध्य तारा के नाम से पुकारते आए हैं। यह उन सर्वाधिक सुपरिचित खगोलीय पिंडों में से एक है जिसे हमारे पूर्वज आसानी से पहचान सके। शुक्र पश्चिमी आकाश में क्षितिज के पास सूर्यास्त के ठीक बाद सांध्य तारे के रूप में अथवा सूर्योदय से तुरंत पहले पूर्वी क्षितिज के पास ‘प्रातस्तारा’ के रूप में दिखाई देता है।

  • ग्रहों, चंद्रमा और तारों सहित जितने भी खगोलीय पिंड हमें दृष्टिगोचर होते हैं उन सभी में शुक्र सबसे अधिक चमकीला दिखाई देता है
  • सूर्य से शुक्र ग्रह की दूरी बुध ग्रह से अधिक होने के बावजूद भी यह सबसे अधिक चमकीला दिखाई देता है।
  • शुक्र के चमकीलेपन का कारण इसका घने बादलों से युक्त वायुमंडल है, जो अपने ऊपर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश के लगभग तीन चौथाई भाग को परावर्तित कर देता है।
  • शुक्र का द्रव्यमान, पृथ्वी के द्रव्यमान का लगभग 4/5 वां है जबकि दोनों के आमाप लगभग समान हैं।
  • शुक्र ग्रह का अपना कोई उपग्रह यानि चंद्रमा नहीं है।

   3. पृथ्वी

सूर्य से बढ़ती दूरी के पदों में पृथ्वी का तीसरा स्थान है। इसका एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह है – चंद्रमा। अब तक ज्ञात ग्रहों में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन विद्यमान है। पृथ्वी पर विशिष्ट परिस्थितियों के विद्यमान होने के परिणामस्वरूप ही पृथ्वी पर जीवन का विकास एवम् संपोषण संभव हुआ।

  • पृथ्वी अपने उत्तरी एवम् दक्षिणी ध्रुवों से गुजरने वाले काल्पनिक अक्ष के परितः घूर्णन करती है। पृथ्वी का यह घूर्णन अक्ष इसकी कक्षा के तल से थोड़ा झुका हुआ है। पृथ्वी पर दिन और रात इसकी इसी घूर्णन गति के कारण होते हैं।
  • यह अपनी कक्षा में, सूर्य की परिक्रमा भी कर रही है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365.25 दिन में पूरा करती है जिसे हम ‘एक वर्ष’ कहते हैं। वास्तव में, सभी ग्रह, पृथ्वी की तरह ही घूर्णन एवम् सूर्य की परिक्रमा करते हैं। परंतु, प्रत्येक ग्रह का घूर्णन काल एवम् परिक्रमण-काल अलग-अलग है।
  • पृथ्वी पर ऋतु परिवर्तन, इसकी अक्ष के झुके होने के कारण तथा सूर्य के सापेक्ष इसकी स्थिति में परिवर्तन के कारण होते हैं।
  • जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर झुका होता है तो हम ग्रीष्म का अनुभव करते हैं जबकि उसी समय दक्षिणी गोलार्ध में शीत-ऋतु होती है। जब पृथ्वी अपनी कक्षा में इन दो स्थितियों के बीच की स्थितियों में होती है तो हेमंत एवम् बसंत ऋतुओं का आगमन होता है।

इस तथ्य पर भी ध्यान दीजिए कि 21 जून को पृथ्वी, 22 दिसंबर की तुलना में सूर्य से अधिक दूरी पर होती है। इस दिन उत्तरी गोलार्ध में दिन की अवधि सबसे लंबी और दक्षिणी गोलार्ध में सबसे कम होती है। 22 दिसंबर को उत्तरी गोलार्ध में दिन की अवधि सबसे कम तथा दक्षिणी गोलार्ध में सबसे अधिक होती है। 23 सितंबर एवम् 21 मार्च को दोनों गोलाधों में, दिन और रात की अवधि बराबर होती है।

मंगल ग्रह (मार्स)

सूर्य से बढ़ती दूरी के पदों में अगला ग्रह, मंगल है। यह लाल रंग का दिखाई पड़ता है और इसलिए इसे लाल ग्रह भी कहते हैं। वर्ष के अधिकांश दिनों में यह पृथ्वी से दिखाई देता है। किंतु, इस ग्रह को देखने के लिए सर्वोत्तम समय वह है जब आकाश में इसकी स्थिति ऐसी होती है कि पृथ्वी के एक ओर सूर्य है और दूसरी ओर मंगल। इन दिनों में यह पृथ्वी के सर्वाधिक निकट भी होता है।

  • मंगल की त्रिज्या, पृथ्वी की त्रिज्या का आधे से कुछ अधिक है; लेकिन इसका द्रव्यमान, पृथ्वी के द्रव्यमान के केवल 1/9 गुना है।
  • इसका वायुमण्डल पृथ्वी की तुलना में विरल है अर्थात् इसके वायुमंडल की मोटाई बहुत कम है।
  • पृथ्वी से इसके पृष्ठ को दूरदर्शक के द्वारा आसानी से देखा जा सकता है।
  • खगोलविदों ने इसके पृष्ठ पर होने वाले कुछ ऐसे परिवर्तनों को देखा है जिनसे उन्होंने यह अनुमान लगाया है कि इसके पृष्ठ पर जल विद्यमान है और शायद किसी न किसी रूप में जीवन भी।
  • तथापि, इस ग्रह में जल और जीवन के अस्तित्व के कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं। फिर भी इनकी खोज के लिए अभी शोध किए जा रहे हैं।
  • मंगल के दो प्राकृतिक उपग्रह हैं- फोबोस एवम् डीबोस

बृहस्पति ग्रह

बृहस्पति सभी गृहों में सबसे विशाल है। इसका द्रव्यमान शेष सभी ग्रहों के सम्मिलित’ द्रव्यमान से भी अधिक है। सूर्य से बृहस्पति की दूरी उस दूरी से अधिक है, जो पहले चार ग्रहों की सूर्य से दूरियों को जोड़ने से प्राप्त होती है। अतः सूर्य से इस तक पहुँचने वाले प्रकाश और ऊष्मा की मात्रा पृथ्वी एवम् मंगल की तुलना में बहुत कम होती है। तो भी यह ग्रह शुक्र और कभी-कभी मंगल के अतिरिक्त शेष सभी ग्रहों की तुलना में बहुत अधिक चमकदार दिखाई देता है।

  • बृहस्पति की यह चमक इसके घने वायुमण्डल के कारण है, जो इसके ऊपर पड़ने वाले अधिकांश प्रकाश को परावर्तित कर देता है।
  • ऐसा विश्वास किया जाता है कि बृहस्पति मुख्यतः हाइड्रोजन एवम् हीलियम गैसों से बना है।
  • इसके बादलों जैसे बाहरी भाग में, मेथेन गैसीय रूप में जबकि अमोनिया क्रिस्टलित ठोस कणों के रूप में विद्यमान है।
  • सन् 2002 ई. तक बृहस्पति के 28 प्राकृतिक उपग्रह ज्ञात थे। इसके चारों ओर धुंधले से वलय भी दिखाई पड़ते हैं।

शनि ग्रह

शनि प्राचीन खगोलविदों को ज्ञात ग्रहों में सबसे दूर स्थित ग्रह था। इसकी सूर्य से दूरी, बृहस्पति की दूरी की लगभग दोगुनी है। आमाप, द्रव्यमान एवम् संरचना में यह लगभग बृहस्पति जैसा ही है।

  • यह बृहस्पति की तुलना में अधिक ठंडा है।
  • शनि के चारों ओर तीन वलय हैं जिनके कारण यहअन्य ग्रहों से अलग तथा अतिसुंदर दिखाई देता है।
  • इन वलयों को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता तथा इन्हें देखने के लिए दूरदर्शक की आवश्यकता होती है।
  • दूरदर्शक से शनि को देखना एक चित्ताकर्षक अनुभव है।
  • सभी ग्रहों में शनि के ज्ञात प्राकृतिक उपग्रहों की संख्या सर्वाधिक है जो कि 30 है।

यूरेनस

यूरेनस वह पहला ग्रह है जिसकी खोज दूरदर्शक द्वारा की गई। इस ग्रह की खोज सन 1781 ई. में, विलियम हर्शल ने की थी। दूरदर्शक से देखने पर यूरेनस एक डिस्क की तरह दिखाई पड़ता है। यूरेनस के वायुमंडल में हाइड्रोजन एवम् मेथैन गैसें पाई गई हैं। सूर्य से इसकी दूरी, शनि की दूरी की लगभग दोगुनी है। अभी तक यूरेनस के 21 उपग्रह खोजे जा चुके हैं।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यूरेनस की खोज से पहले के 100 वर्षों में, अलग-अलग खगोलविदों ने कम से कम 20 बार इसे देख लिया था। उन्होंने आकाश में इसकी ठीक-ठीक स्थिति भी संसूचित की थी। पर वह सभी इसे एक ग्रह के रूप में नहीं पहचान पाए। हर्शल से पहले सभी खगोलविदों ने इसे कोई तारा माना। वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों में ऐसी घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं। लेकिन वैज्ञानिक समाज अपने पूर्ववर्तियों के योगदान को सदैव मान्यता देता है।

नेप्ट्यून

सूर्य से दूरी के पदों में नेप्ट्यून का स्थान आठवां है। यह ऐसा दूसरा ग्रह है जिसकी खोज दूरदर्शक की सहायता से की गई। वास्तव में सन् 1846 ई. में, फ्रांसिसी खगोलविद् यू. जे. लेवेरियर ने सर्वप्रथम यूरेनस के परे किसी ग्रह का अस्तित्व होने की संभावना प्रकट की थी। उनका यह अनुमान यूरेनस के गमन पथ में देखे गए विचलनों पर आधारित था।

  • लेवेरियर के गणितीय परिकलन इतने यथार्थ थे कि उन्होंने इस संभावित ग्रह के द्रव्यमान एवम् आमाप के विषय में सही जानकारी प्रदान करने के साथ-साथ यह भी बताया कि आकाश में यह किस दिशा में स्थित हो सकता है। खगोलविदों ने अपने दूरदर्शक से अपेक्षित दिशा में देखा और नेप्ट्यून को खोज निकाला।
  • नेप्ट्यून की खोज संबंधी परिकलन का नियम यह वही गुरुत्व का नियम था जिसकी खोज इससे लगभग 180 वर्ष पूर्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आइज़क न्यूटन ने की थी।
  • नेप्ट्यून की परिक्रमा इसके 8 उपग्रह कर रहे हैं।

प्लूटो

नौ ग्रहों में सबसे दूर स्थित ग्रह की खोज सन 1930 ई. में टी. डब्ल्यू. टॉमबाऊ ने की। इसका नाम प्लूटो रखा गया। प्लूटो की सूर्य से दूरी का अनुमान आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि सूर्य से प्रकाश को इस ग्रह तक पहुँचने में लगभग 32 घण्टे का समय लगता है।

  • प्लूटो की कक्षा के संबंध में एक अन्य विशेष तथ्य यह है कि केवल यही एक ऐसा ग्रह है जिसकी कक्षा किसी दूसरे ग्रह (जो कि नेप्ट्यून है) की कक्षा को काटती है।
  • इसी कारण, वर्तमान में प्लूटो, नेप्ट्यून की तुलना में पृथ्वी के अधिक निकट है।
  • प्लूटो सभी ग्रहों में सबसे छोटा है।
  • ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्लूटो अतीत में किसी समय नेप्ट्यून का उपग्रह रहा होगा।
  • अभी तक प्लूटो के एक उपग्रह की खोज की जा चुकी है।

सौर परिवार

आप जानते हैं कि सूर्य एक तारा है जो हमारे निकटतम है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य की उत्पत्ति लगभग 500 करोड़ अर्थात् 5 अरब वर्ष पूर्व हुई। तब से अब तक यह निरंतर अत्यधिक मात्रा में प्रकाश एवम् ऊष्मा उत्सर्जित कर रहा है और अनुमान है कि अगले लगभग 5 अरब वर्ष तक यह इसी प्रकार चमकता रहेगा। सूर्य की परिक्रमा करने वाले सभी ग्रहों के लिए ऊष्मा एवम् प्रकाश का एकमात्र स्रोत सूर्य ही है।

सभी नौ ग्रह अपने उपग्रहों सहित अपनी-अपनी निश्चित कक्षाओं में, सूर्य की परिक्रमा करते हैं। ग्रहों और उपग्रहों को सौर परिवार के सदस्य कहा जाता है। सूर्य से विभिन्न ग्रहों की दूरियों में अंतर बहुत अधिक है, इसलिए सौर परिवार के सभी ग्रहों को, एक ही चित्र में, किसी पैमाने के आधार पर नहीं दर्शाया जा सकता। अपनी-अपनी कक्षाओं में विभिन्न ग्रहों की गति, उन पर सूर्य के गुरुत्व बल के कारण है।

सौर परिवार में कुछ अन्य खगोलीय पिंड भी हैं। आकाश में इनकी गति भी सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण ही है। अतः इन्हें भी सौर परिवार का सदस्य माना जाता है।

    • ग्रहिकाएँ
    • धूमकेतु (पुच्छल-तारा)

    • उल्काएँ
    • उल्का पिंड

ग्रहिकाएँ

मंगल और बृहस्पति की कक्षाओं के बीच विशाल अंतराल है। इस अंतराल में अनेक छोटे-छोटे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हें ग्रहिकाएँ या क्षुद्र-ग्रह कहते हैं। प्रत्येक ग्रहिका की अपनी विशिष्ट कक्षा है जो एक विशाल क्षेत्र में अवस्थित है। इन सबकी कक्षाओं से मिलकर एक चौड़ी पट्टी सी बनती है। ग्रहिकाओं का आमाप मात्र एक किलोमीटर से लेकर कुछ सौ किलोमीटर तक हो सकता है। अधिकतर ग्रहिकाओं को केवल दूरदर्शक की सहायता से ही देखा जा सकता है। ऐसा विश्वास है कि ग्रहिकाएँ द्रव्य के वह खंड हैं जो किसी कारण ग्रह का रूप नहीं ले पाए।

धूमकेतु (पुच्छल-तारा)

धूमकेतु बहुत छोटे आमाप के खगोलीय पिंड हैं जो अत्यधिक दीर्घवृत्तीय कक्षाओं में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। वे पृथ्वी से केवल तभी दिखाई पड़ते हैं जब वे सूर्य के बहुत निकट आ जाते हैं। इनके विशेष अभिलक्षण हैं एक छोटा चमकदार शीर्ष और उसके पीछे एक लम्बी पूँछ। जैसे-जैसे कोई धूमकेतु सूर्य के निकट पहुँचता है इसकी पूँछ की लंबाई बढ़ती जाती है और फिर सूर्य से दूर होते समय इसकी पूँछ की लंबाई घटती जाती है और अंत में अदृश्य हो जाती है। तथापि, धूमकेतु की पूँछ सदैव सूर्य से विपरीत दिशा में ही रहती है।

कुछ धूमकेतुओं के बारे में हम जानते हैं कि वे एक निश्चित समयावधि के बाद बार-बार प्रकट होते रहते हैं। ‘हेली’ का धूमकेतु एक ऐसा ही धूमकेतु है। यह लगभग 76 वर्ष के बाद प्रकट होता है। अन्तिम बार हेली का धूमकेतु सन् 1986 ई. में दिखाई दिया था।

उल्काएँ एवम् उल्का-पिंड

उल्काएँ, बहुत छोटे आमाप के पत्थर-जैसे पिंड हैं जो सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रहे हैं। उनके अस्तित्व का ज्ञान हमें तभी होता है जब उनमें से कोई, संयोगवश पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश कर जाता है। जब कोई उल्का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती है तो यह वायु के घर्षण से गर्म हो जाती है। इस प्रकार उत्पन्न ऊष्मा इतनी अधिक होती है कि यह उल्का चमकने लगती है और बहुत ही कम समय में वाष्पित हो जाती है। अतः किसी उल्का का गमन-पथ, रात्रि के आकाश में, प्रकाश की एक रेखा जैसा दिखाई पड़ता है। इसीलिए उल्काओं को सामान्यतः ‘टूटते तारे’ भी कहा जाता है, यद्यपि ये तारे नहीं हैं।

कुछ उल्काएँ आमाप में इतनी बड़ी होती हैं कि ये वायुमण्डल में पूरी तरह वाष्पित होने के पूर्व ही पृथ्वी पर आ गिरती हैं। इनको उल्का पिंड कहते हैं। उल्का पिंड, वैज्ञानिकों को उन खगोलीय पिंडों के पदार्थों का अध्ययन करने में सहायता करते हैं जो सौर परिवार के सदस्य हैं।

कृत्रिम उपग्रह

दूरदर्शन-कार्यक्रम देखते समय आपने इन्सैट-3B एवम् कल्पना चावला-1 जैसे उपग्रहों के नाम सुने होंगे। ऐसे खगोलीय पिंड जो किसी ग्रह की परिक्रमा करते हैं उपग्रह कहलाते हैं। चंद्रमा, पृथ्वी का प्राकृतिक उपग्रह है।

इन्सैट-3B, या कल्पना चावला-1 जैसे उपग्रह, कृत्रिम या मानव निर्मित उपग्रहों के उदाहरण हैं। मानव निर्मित उपग्रह भी पृथ्वी के प्राकृतिक उपग्रह चन्द्रमा की भाँति ही, इसकी परिक्रमा करते हैं। परंतु, वे चंद्रमा की तुलना में पृथ्वी के बहुत निकट होते हैं।

  • पिछले लगभग चालीस वर्षों में वैज्ञानिकों ने मानव निर्मित उपग्रहों के डिज़ाइन व निर्माण संबंधी तकनीकी का विकास किया है। उन्होंने ऐसे शक्तिशाली प्रमोचन वाहन या रॉकेट भी विकसित कर लिए हैं जो इन उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाकर किसी निर्धारित कक्षा में पृथ्वी के मानव निर्मित उपग्रह की भाँति छोड़ सकते हैं।
  • संसार में केवल छः ऐसे देश हैं, जिनके पास मानव निर्मित उपग्रहों को विकसित करने और पृथ्वी की कक्षा में प्रमोचित करने की तकनीक उपलब्ध है। भारत भी इन छः देशों में एक है।

मानव निर्मित उपग्रहों के ऐसे बहुत से व्यावहारिक उपयोग हैं, जो हमारे जीवन को कई तरह से प्रभावित करते हैं। दूरदर्शन कार्यक्रमों का लंबी दूरी तक संप्रेषण तथा टेलीफोन एवम् इंटरनेट के माध्यम से दूरसंचार इन्हीं के कारण संभव हो सका है।

  • मानव निर्मित उपग्रहों का उपयोग, शोध, प्रतिरक्षा एवम् सुदूर संवेदन के लिए भी होता है। सुदूर संवेदन का अर्थ है, दूर रह कर अर्थात् बिना संपर्क के सूचनाओं का एकत्रीकरण।
  • इस तकनीक के उपयोग से हम, मौसम, फसलों की स्वस्थ वृद्धि, सागरों में मछलियों के झुंडों की गतिविधि, भूतल एवम् सागरों में होने वाले परिवर्तनों के संबंध में सूचनाएँ एकत्र कर सकते हैं।
  • कुछ कृत्रिम उपग्रहों का उपयोग प्रतिरक्षा संबंधी गतिविधियों के विषय में सूचना एकत्र करने के लिए भी किया जाता है।
कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से दूरदर्शन कार्यक्रमों का लंबी दूरी तक प्रसारण कैसे किया जाता है?

दूरसंचार में उपयोग होने वाले कृत्रिम उपग्रहों की चाल इस प्रकार समायोजित की जाती है कि वे 24 घंटे में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करें। परिणामस्वरूप यह उपग्रह भूस्थित किसी संप्रेषण-केंद्र के सापेक्ष, स्थिर दिखाई पड़ता है।

  • सर्वप्रथम, वह चित्र तथा ध्वनियाँ जिन्हें संप्रेषित करना होता है, क्रमशः एक वीडियो कैमरे तथा माइक्रोफोन की सहायता से विद्युत संकेतों में परिवर्तित किए जाते हैं।
  • इन विद्युत-संकेतों को फिर कुछ विशेष प्रकार की तरंगों में परिवर्तित करके, संप्रेषक एंटेना की सहायता से वायु में संप्रेषित कर दिया जाता है। इस प्रकार ये तरंगें पृथ्वी से कृत्रिम उपग्रहों तक पहुँच जाती हैं।
  • कृत्रिम उपग्रहों में भूकेन्द्रों से संप्रेषित इन तरंगों को ग्रहण करने के लिए कुछ विशिष्ट उपकरण लगे होते हैं।
  • इस प्रकार ग्रहण किए गए संकेतों को आवर्धित करके, उपग्रह पर लगे उपकरणों द्वारा, पुनः संप्रेषित कर दिया जाता है।
  • क्योंकि उपग्रह बहुत अधिक ऊँचाई पर स्थित होते हैं, अतः इनके द्वारा संप्रेषित संकेत पृथ्वी के बहुत बड़े क्षेत्र तक पहुँचते हैं।
  • पृथ्वी पर विभिन्न केंद्रों पर लगे एन्टिना, जिनमें केबल-संचालकों के एंटेना भी सम्मिलित हैं, उपग्रहों से प्राप्त इन संकेतों को ग्रहण करके पुनः संप्रेषित करते हैं।
  • हमारे घरों में लगे दूरदर्शन-ग्राही उपकरण (टी.वी.सेट), भूकेंद्रों या केबल-संचालकों के नेटवर्क द्वारा संप्रेषित इन संकेतों को ग्रहण करते हैं। अंत में टी.वी. सेट इन संकेतों को मूल चित्रों एवम् ध्वनियों में परिवर्तित कर लेते हैं।

 

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