Tridosha notes of Kriya Sharir के लिए यहां से पढें।
Table of Contents
- 1 General description of Tridosha
- 2 Interrelationship between Ritu-Dosha – Rasa – Guna
- 3 Biological rhythms of Tridosha on the basis of day-night-age-season and food intake
- 4 Role of Dosha in the formation of Prakriti of an individual & in maintaining health
- 5 महर्षि चरक के अनुसार मानव प्रकृति का निर्माण अनेक कारणों पर निर्भर करता है –
- 6 प्राकृत दोष और वैकृत दोष
General description of Tridosha
दोष
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- दूषयन्ति मनः शरीरं चेति दोषा:। – सिद्धान्त निदान
शरीर और मन को दूषित करने वाले को दोष कहते हैं।
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- दोषों का कार्यक्षेत्र समस्त शरीर है। शरीर में इनकी क्रियाएँ निरन्तर अबाध गति से होती रहती है।
- दोष स्वतन्त्र रहते हुए , शरीर की धातु और मलों को दूषित करते हैं जब वे अपनी विकृतावस्था को प्राप्त हो जाते हैं।
- दोष साम्यावस्था में रहते हुए शरीर को धारण करते है और विकृतावस्था में शरीर का नाश करते हैं।
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- दोषधातुमलमूलं हि शरीरम्। –सु.सू.15/3
दोषों को शरीर का मूल कहा गया है ।
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- वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषासमासतः।
विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च॥ – अ.ह.सू०1/6
वात, पित्त एवं कफ, ये तीनों दोष विकृत होकर शरीर को नष्ट करते हैं तथा अविकृत होने पर स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
दोष –
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- वात
- पित्त
- कफ
1. वात
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- शरीरगत सभी शारीरिक और मानसिक चेष्टयाएँ तथा समस्त संज्ञात्मक व्यापार वात के अन्तर्गत ही समाविष्ट हो जाते हैं।
- वात को स्वयम्भू माना है क्योंकि इसकी गति सर्वत्र रहती है।
- यह स्वंय अव्यक्त रहते हुए भी व्यक्त कर्मो का सम्पादन करता है।
- त्रिदोष में प्रधान होने के कारण व्याधि उत्पादन में भी प्रधान होता है।
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2. पित्त
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- जो शरीर में ताप उत्पन्न करे, वह पित्त शब्द से जाना जाता है।
- पित्त पाक का कर्म करता है।
- संहिताकारों ने अग्नि को पित्त के अन्तर्गत ही स्वीकार किया है।
- प्राकृत पित्त देह में प्रभा, मेधा, बुद्धि आदि कर्मों का सम्पादन करता है।
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3. कफ
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- कफ शरीर में स्निग्ग्यता उत्पन्न करता है।
- श्लेष्मा ओजस्कर एवं देह बल प्रदान करने वालां द्रव्य होता है।
- यह शरीर के रचनात्मक कार्य में भी सहायक होता है।
- श्लेष्मा नाम इसके संश्लेषणात्मक गुण के कारण दिया गया है जिससे यह एक देह परमाणु को दूसरे से संयुक्त रखने का कार्य भी करता है।
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सुश्रुत ने वात, पित्त, कफ को शरीर उत्पत्ति का कारण माना है तथा इन्हें शरीर के ‘त्रिस्थूण‘ की संज्ञा प्रदान की है, जैसे तीन स्तम्भों पर भवन स्थिर रहता, उसी प्रकार यह शरीर वात , पित्त एवं कफ पर निर्भर रहते हैं। जब किसी एक में भी विकृत्ति आ जाती तो यह शरीर प्रलय को प्राप्त होता है।
Interrelationship between Ritu-Dosha – Rasa – Guna
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- Interrelationship between Ritu- Dosha
दोष | सन्चय | प्रकोप | प्रशमन |
वात | ग्रीष्म | वर्षा | शरद |
पित्त | वर्षा | शरद | हेमन्त |
कफ | शिशिर | वसंत | ग्रीष्म |
- Inter-relationship b/w Dosha – Rasa Or रसों का दोषों पर प्रभाव
रस | दोष | दोष | दोष |
मधुर | वात क्षय | कफ वृद्धि | पित्त क्षय |
अम्ल | वात क्षय | कफ वृद्धि | पित्त वृद्धि |
लवण | वात क्षय | कफ वृद्धि | पित्त वृद्धि |
कटु | कफ क्षय | वात वृद्धि | पित्त वृद्धि |
तिक्त | कफ क्षय | वात वृद्धि | पित्त क्षय |
कषाय | कफ क्षय | वात वृद्धि | पित्त क्षय |
- तीन-तीन रस दोषों का शमन और वृद्धि करते हैं।
Trick for पित्त क्षय – KTM – कषाय , तिक्त , मधुर
- Interrelationship between Dosha – Guna – Rasa
दोष | गुण | शामक रस | प्रकोपक रस |
वात | रज | मधुर, अम्ल, लवण | कटु, तिक्त , कषाय |
पित्त | सत्व | मधुर, तिक्त, कषाय | अम्ल , लवण , मधुर |
कफ | तम | कटु , तिक्त , कषाय | मधुर , अम्ल , लवण |
Biological rhythms of Tridosha on the basis of day-night-age-season and food intake
दोषों का दिन – रात – वय – ऋतु एवं आहारपाक काल से सम्बन्ध
दोष | दिन | रात | वयावस्था | ऋतु (प्रकोप) | आहारपाक काल |
वात | अपराह्न
(3pm -6pm) |
अत्तिम काल | वृद्धावस्था | वर्षा | अन्त (पक्वावस्था) |
पित्त | मध्याह्न
( 9am -3pm) |
मध्यकाल | युवावस्था | शरद | मध्य (विदग्धावस्था) |
कफ | पूर्वाह्न
(6am – 9am) |
पूर्वकाल | बाल्यावस्था | वसंत | आदि (आमावस्था) |
- अपराह्न को ही अन्तिम काल कहते हैं।
- मध्याह्न को मध्यकाल कहते हैं।
- पूर्वाह्न को पूर्वकाल /आदिकाल भी कहते हैं।
Role of Dosha in the formation of Prakriti of an individual & in maintaining health
i) दोष –
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- वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषा समासतः।
विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च ।। – अ.ह.सू.1/6
वायु [ वात), पित्त एवं कफ, ये तीनों दोष विकृत होकर, शरीर को नष्ट करते हैं तथा अविकृत होने पर स्वास्थ्य प्रदान करते हैं।
इन त्रिदोषों में प्रकृति निर्माण की क्षमता होती है।
ii) प्रकृति –
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- ‘प्रकरोति इति प्रकृतिः‘। – डा. घाणेकर
जो अन्य तत्वों को उत्पन्न करती है, उसे प्रकृति कहते हैं।
वातादि दोष शरीर, मन पर गर्भ स्थापना काल से जो शुभ-अशुभ प्रभाव डालते है, उसे उस व्यक्ति की ‘प्रकृति’ कहते हैं।
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- प्रकृतिश्चारोग्यम्। – च. वि.6/13
प्रकृति को आरोग्य कहते हैं।
iii) प्रकृति निर्माण–
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- शुक्र शोणित संयोगे यो भवेदोष उत्कटः।
प्रकृतिर्जायते तेन तस्या में लक्षणं श्रृणु॥ – सु.शा.4/62
शुक्र और शोणित के संयोग काल में जिस दोष की उत्कटता (प्रबलता) होती है , उसी से पुरुष की प्रकृति का निर्माण होता है।
आचार्य डल्हण ने दोष उत्कटता से प्राकृत दोष की प्रबलता को बतलाया है वैकृत अवस्या को नहीं क्योंकि वैकृत दोष की उत्कटता से गर्भ का नाश होता है।
महर्षि चरक के अनुसार मानव प्रकृति का निर्माण अनेक कारणों पर निर्भर करता है –
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- शुक्र प्रकृति – गर्भस्थापना के समय शुक्र में वात-पित्त-कफ का समरूप, होना या किसी एक-दो का प्रबलता रूप में होना।
- शोणित प्रकृति – डिम्ब में दोष सम है या विषम अवस्था में है।
- काल प्रकृति – जिस ऋतु में गर्भस्थापना होती है उस काल में किस दोष की उत्कटता थी।
- गर्भाशय प्रकृति– गर्भ स्थापना काल में गर्भाशय में स्थित त्रिदोष साम्य थे या विषम अवस्था में।
- माता के आकार की प्रकृति – गर्भ स्थापना से पूर्व माता द्वारा किस प्रकार का आहार सेवन किया गया है।
- माता के विहार की प्रकृति– गर्भ स्थापना से पूर्व या पश्चात माता के आचार-विचार एवं रहन-सहन दोषों को साम्यावस्था में रखने वाला था या विषमावस्था में।
- पञ्च महाभूत प्रकृति– गर्भ निर्माण के समय जल, वायु, अग्नि आदि दोष प्रकोपक थे या वैषम्य कारक
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उक्त सभी कारण गर्भ निर्माण पर प्रभाव डालने वाले होते हैं। इन सभी को मिलाकर उस समय जो एक दोष या दो दोष प्रवृद्ध होते हैं गर्भ उसी से सम्बन्धित हो जाता है। इसी के पश्चात् गर्भस्थ शिशु में वही दोष प्रबल हो जाते हैं
इस प्रकार गर्भकाल से लेकर मनुष्यों की जो प्रकृति बनती है उसे ‘ दोष प्रकृति ‘कहते हैं।
iv) प्रकृति के प्रकार – सात प्रकार की देह प्रकृति होती हैं।
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- एक एक दोष की प्रबलता से –
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- वातल
- पित्तल
- श्लेष्मल
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- दो दोषों की प्रबलता से –
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- वातपित्तज
- वातकफज
- पित्तकफज
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- समप्रकृति / सन्निपात्तज
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सुश्रुतानुसार– विष से उत्पन्न हुआा कीट जैसे अपने शरीरगत विष से मरता नहीं है वैसे ही शरीरगत प्रकृतियाँ मनुष्य को बाधाएँ नहीं पहुँचाती हैं । इसका अभिप्राय यह है कि दोषों की प्रबलता गर्भजन्य काल से अर्थात सहज होने से घातक नहीं होती है जैसे विषकृमि का विष सहज होने से मारक नहीं होता है ।
Role of Dosha in maintaining of health
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- वातादि दोषों की साम्यावस्या आरोग्यता / स्वास्थ्य प्रदान करती है।
- वातादि दोषों का विकृत होना रोग को उत्पन्न कर शरीर को नष्ट करता है।
- ‘दोषधातुमलमूलं ही शरीरम् ‘ अनुसार दोष शरीर का मूल कहे गए है।
- “समदोषः समाग्निश्च ……… स्वस्थ इत्यभिधीयते॥ – सु.सू.15/98 के अनुसार दोषों का साम्यावस्था में रहना स्वस्थ मनुष्य का लक्षण है।
- जिस प्रकार वायु, सूर्य एवं सोम (चन्द्रमा ) अपने विक्षेप कर्म ( Diffusing Power) , आदान कर्म (Assimilating Power) एवं विसर्ग कर्म [Creating Power] के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का धारण करते हैं उसी प्रकार वात, पित एवं कफ तीनों दोष क्रमश: Neurochemical functions , catabolic functions एवं Anabolic functions आदि क्रियाओं के द्वारा शरीर का धारण करते हैं।
प्राकृत दोष और वैकृत दोष
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- प्राकृत दोष
शुक्र – शोणित के समय जिन दोषों का निर्माण या प्रबलता होती है उन्हें प्राकृत दोष कहते हैं
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- वैकृत दोष
वैकृत अर्थात् विकार
जो दोष शरीर में विकृति उत्पन्न करें , उन्हें वैकृत दोष कहते हैं।
वैकृत में दोषों की क्षय और वृद्धि आती है ।
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