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Part – A
Sharir (शरीर)
Table of Contents
परिभाषा (Definitions)
“तत्र शरीरं नाम चेतनाधिष्ठानभूतं पंचमहाभूतविकारसमुदायात्मकं समयोगवाहि। – (च.शा.6/4)
चेतना अर्थात् आत्मा का आश्रयभूत तथा पंचमहाभूतादिक विकारों इस का का संयोग ‘शरीर’ नाम से जाना जाता है। इस लोक में सभी द्रव्य पञ्च भौतिक है । शरीर में पांच महाभूतों के विकारों के रूप में रस आदि धातुएँ ,दोषों तथा मलों का ग्रहण करना चाहिए। यह शरीर समयोगवाहिी होता है अर्थात् त्रिदोष सप्त धातु तया मल सम मात्रा में रहने से यह शरीर गतिमान रहता है। इनका वैषम्य शरीर में क्लेश को उत्पन्न करता है।
सुश्रुत अनुसार
शुक्र शोणितं गर्भाशयस्थमात्मप्रकृति विकार संमूर्च्छित ‘गर्भ’ इत्युच्यते। तं चेतनावस्थितं वायुर्विभजति, तेज एनं पचति ,आपः क्लेदयन्ति , पृथिवी सन्हन्ति , आकाशं विवर्धयति एवं विवर्धितः स यदा हस्तपादजिह्वाघ्राणकर्णनितम्बादिभिरङ्ग रुपेतस्तदा ‘शरीर’ इति संज्ञां लभते | सु शा. 5/3
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- गर्भाशय में स्थित आत्मा ,प्रकृति (अष्ट प्रकृति जिसके अन्तर्गत प्रकृति, महत्, अहंकार एव पञ्च तन्मात्रा है।) और विकारों ( षोडश विकार- पञ्च महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ) से युक्त शुक्र (sperm) एवं शोणित (Ovum) गर्भ कहलाता है।
- इससे चेतना युक्त गर्भ में वायु द्वारा विभाजन,तेज से पचन , आप से क्लेदन, पृथ्वी से संहनन तथा आकाश महाभूत से विवर्धन होता है। इस प्रकार परिवर्धित गर्भ जब हस्त, पाद , जिह्वा, कर्ण , नितम्ब आदि अंगों से युक्त्त होता है तब ‘शरीर’ की संज्ञा को प्राप्त होता है।
शरीर शब्द के पर्याय (Synonyms of term Kriya)
- शरीर
- देह
- काय
- पुरुष
1. शरीर
व्युत्पत्ति – शीर्यते इति शरीरम् ।
प्रतिपल झीण अथवा नष्ट होते रहने के कारण ही इसे शरीर कहते हैं । शरीर शब्द का अर्थ है – ‘टूटना’ । जिसमें टूट -फूट चलती रहती है , उसे शरीर कहते हैं।
In modern , it is related to catabolism.”
2. देह
व्युत्पत्ति – धार्यतेऽनेन इति देहः ।
जिससे धारण हो, उसे देह कहते हैं। देह का अर्थ है – वृद्धि या विकास ।
All the metabolic processes occur in the living body .
3. काय
व्युत्पत्ति – चीयतेऽनेन इति कायः।
जिसका पोषण होता रहे, उसे काय कहते हैं। काय शब्द अग्नि वाचक है। सभी प्रकार के chemical changes (रासायनिक परिवर्तन) अग्नि द्वारा होते है। अतः इससे क्षय और वृद्धि दोनों क्रियाओं का ज्ञान होता है।
4. पुरुष
व्युत्पत्ति- ‘पुरि (शरीरे) वसति इति पुरुषः।’
अतः शरीर में जो विद्यमान रहे, उसे ‘पुरुष’ कहते है। इन अर्थों में पुरुष से ‘आत्मा’ का बोध होता है।
शारीर (Sharir)
- शरीरं चिन्त्यते सर्वं दैव मानुष सम्पदा । सर्वभावैः यतः तस्मात् शारीरं स्थान उच्चते ।। –च. शा. 8/69
- समस्त शरीर का दैव (अलौकिक) और मानवीय साधनों द्वारा कि या गया चितंन (विचार) और उसके सभी भावों को जहां पर व्यक्त किया जाता है , उसे शारीर स्थान कहते हैं।
- शारीरिकभावं अधिकृत्य कृतो अध्यायः शारीरः। – (डल्हण)
शरीर के सभी भावो को ग्रहण करके जो अध्याय था ग्रन्य लिखा जाए, वह शारीर है।
यह भाव दो प्रकार के होते हैं –
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- रचनाकार भाव ( structural) – अंग प्रत्यंग आदि का ज्ञान।
- क्रियाकारक भाव ( functional) – दोष ,धातु , आदि का ज्ञान।
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शारीर दोष (Description of Sharir Dosha)
“वायुः पित्तं ककश्चोक्तः शारीरो दोषसंग्रहः।” –च.सू. 1/57
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- संक्षेप में वात, पित्त और कफ ये शारीरिक दोष कहे जाते हैं।
- दूषयन्ति मनः शरीरं चेति दोषाः । -(सिद्धान्त निदान) जो मन एवं शरीर को जो दूषित करें, उसे दोष कहते हैं।
- शरीर को दूषित करने वाले तत्वों को ‘दोष’ नाम प्रदान किया है।दोषों का शरीर के साथ नित्य सम्बन्ध बताया गया है।
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषा समासतः । विकृताऽविकृता देहं घ्नन्ति ते वर्तयन्ति च ॥ – अ.हृ.सू. 1/6
वात, पित्त एवं कफ प्राकृतावस्था में रहकर देह का धारण करते हैं तथा विकृतावस्था में देह का नाश करते हैं।
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- सुश्रुत ने वात ,पित्त,कफ को शरीर उत्पत्ति का कारण माना है। इन्हें ‘त्रिस्थूण’ की संज्ञा प्रदान की है।
- जैसे तीन स्तम्भों पर भवन स्थिर रहता है उसी प्रकार यह शरीर वात पित्त एवं कफ पर निर्भर करता हैं। । जब किसी एक में भी विकृति हो जाती है तो यह शरीर प्रलय से प्राप्त होता है।
( प्रलय -रोग या विनाश)
मानस दोष (Manasa Dosha)
मानसः पुनरुद्दिष्टये रुजश्च तम
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- रज और तम को मानस दोष कहते हैं।
- वास्तव में मन को प्रभावित करते वाले तीन कारण हैं – सत्व, रज एवं तम।
- परन्तु सत्व गुण स्वंय विशुद्ध है अतः उसके द्वारा मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता है। शेष दोनों गुण रज एवं तम मन को विकृत करते हैं । इसलिए मानस दोषों में इन्ही दोनों की गणना की जाती है ।
- इनमें रज प्रधान होता है क्योंकि बिना रज के तम की प्रवृत्ति नहीं होती है अतः रज पहले बता कर बाद में तम बताया है । मन के विकारों को मानस विकार तथा कारण रज एवं तम को मानस दोष कहते हैं ।
- मानस विकारों में पहले मन विकृत होता है और फिर उसके प्रभाव से शरीर दोष भी विषम हो शरीर में विकृति उत्पन्न करते हैं । यदि मन को विकृत करने वाले कारण हट जाते हैं तो सामान्यत: शरीर से विकार स्वंय नष्ट हो जाते हैं।
- मानस दोषों से उत्पन्न विकार – मोह, ईर्ष्या , क्रोध , काम ,लोभ , अभिमान, शोक, ग्लानि आदि ।
त्रिगुण और त्रिदोष का परस्पर सम्बन्ध
(Mutual Relationship between Trigun and Tridosha)
त्रिगुण त्रिदोष
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- रजस् वात
- सत्व पित्त
- तम कफ
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- वायु प्रभावित रजस् के कारण स्फूर्ति , कर्मण्यता आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
- पित्त प्रभावित सत्व के कारण मेधा , स्मृति, तेजस्विता आदि गुणों का प्राधान्य होता है ।
- कफ प्रभावित तम के कारण शरीर में स्थिरता, धैर्य, गम्भीरता, दृढता आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
त्रिगुण और पंचमहाभूतों का परस्पर सम्बन्ध
(Mutual Relationship between Triguna and Panchmahabhuta)
त्रिदोष पाञ्चभौतिक होते हैं। त्रिदोषों का त्रिगुणों से सम्बन्ध सर्व विदित है। अतएव महाभूत भी त्रिगुणात्र होते. हैं।
महाभूत त्रिगुण
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- आकाश सत्व बहुल
- वायु रज प्रधान
- अग्नि सत्व एवं रज बहुल
- जल सत्व एवं तम बहुल
- पृथिवी तम बहुल
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